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महापुरुषों का अपमान: राजनीति की गिरती मर्यादा और समाज में बढ़ता विद्वेष — चन्द्र शेखर शरण सिंह

भारत का इतिहास उन महापुरुषों की गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर देश, धर्म और समाज की रक्षा की। इन वीरों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर आने वाली पीढ़ियों को स्वतंत्र और गौरवशाली भविष्य सौंपा। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज कुछ लोग इन्हीं महापुरुषों पर अमर्यादित टिप्पणियां कर समाज में वैमनस्य फैलाने का कार्य कर रहे हैं। ऐसी बयानबाजी का उद्देश्य क्या है? क्या यह केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया जाता है या इसके पीछे समाज को तोड़ने की कोई गहरी साजिश छिपी है?

राजनीतिक स्वार्थ के लिए इतिहास का अपमान

आज की राजनीति में कुछ नेता चर्चा में बने रहने और वोटबैंक की राजनीति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। हाल ही में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा पर अमर्यादित टिप्पणी कर यह साबित कर दिया कि उन्हें समाज की भावनाओं और ऐतिहासिक तथ्यों से कोई सरोकार नहीं है। यह समझना होगा कि महापुरुषों पर की गई ऐसी बयानबाजी किसी विशेष समुदाय के प्रति दुर्भावना फैलाने और समाज में फूट डालने का ही कार्य करती है।

इतिहास का सम्मान हर समाज की जिम्मेदारी होती है। राणा सांगा कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे; वे भारत की स्वतंत्रता, स्वाभिमान और गौरव के प्रतीक थे। उनके नेतृत्व में हिंदू समाज ने विदेशी आक्रांताओं का डटकर सामना किया। ऐसे महापुरुषों पर की गई टिप्पणी केवल उनकी नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की अस्मिता का अपमान है।

सहनशीलता को कमजोरी समझने की भूल

हिंदू समाज को उसकी सहिष्णुता और उदारता के लिए जाना जाता है, लेकिन इस सहिष्णुता का बार-बार दुरुपयोग करना और उसे कमजोरी समझना एक गंभीर भूल है। अगर आज हिंदू धर्म और उसके महापुरुषों पर सवाल उठाए जा रहे हैं, तो यह इसलिए है क्योंकि एक विशेष मानसिकता को लगा कि हिंदू समाज इस अपमान को चुपचाप सहन कर लेगा।

यह विडंबना है कि जो लोग इतिहास को तोड़-मरोड़कर अपने अनुसार प्रस्तुत कर रहे हैं, वे कभी अन्य धर्मों या समुदायों के ऐतिहासिक चरित्रों पर ऐसी बयानबाजी करने का साहस नहीं दिखाते। अगर इन्हीं लोगों से यह पूछा जाए कि क्या वे अन्य धर्मों के इतिहास की आलोचना कर सकते हैं, तो शायद वे चुप्पी साध लेंगे। यह दोहरे मानदंड समाज के लिए खतरनाक हैं और इससे केवल सांप्रदायिक तनाव को ही बढ़ावा मिलेगा।

देश के महापुरुषों ने अपने जीवन का हर क्षण राष्ट्र और समाज के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। राणा सांगा हों, छत्रपति शिवाजी महाराज हों, महाराणा प्रताप हों या गुरु गोबिंद सिंह—इन सभी ने न केवल अपने जीवन का बलिदान दिया, बल्कि उनके परिवारों ने भी अकल्पनीय यातनाएँ झेलीं। उन्होंने जो संघर्ष किया, वह केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समूचे समाज और भविष्य की पीढ़ियों के लिए था। लेकिन क्या उन्होंने कभी सोचा होगा कि जिनके अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया, वही लोग भविष्य में उनके अपमान का कारण बनेंगे?

आज यह विचार करने की आवश्यकता है कि हम अपने महापुरुषों के सम्मान की रक्षा कैसे करें। केवल नाराजगी जाहिर कर देना पर्याप्त नहीं होगा। समाज को एकजुट होकर ऐसी मानसिकता को करारा जवाब देना होगा ताकि भविष्य में कोई भी नेता या विचारधारा महापुरुषों का अपमान करने का दुस्साहस न कर सके।

यह केवल किसी एक वर्ग, जाति या धर्म का विषय नहीं है। यह पूरे भारतीय समाज के आत्मसम्मान का प्रश्न है। आज जरूरत इस बात की है कि समाज ऐसे स्वार्थी तत्वों को पहचानकर, उन्हें दरकिनार करे और उनके षड्यंत्रों को विफल करे। राजनीति में ऐसे लोगों का प्रभाव तभी कम होगा जब आम जनता यह तय कर ले कि वह ऐसी बयानबाजी करने वालों को अपना समर्थन नहीं देगी।

इतिहास की सच्चाई को समझना और उसे सम्मान देना हर नागरिक का कर्तव्य है। अगर हम अपने महापुरुषों के अपमान पर चुप रहेंगे, तो यह न केवल हमारी अस्मिता पर चोट होगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक गलत संदेश जाएगा।

राजनीति का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है और यह चिंता का विषय है। लोकतंत्र में वाद-विवाद और आलोचना का स्थान है, लेकिन यह आलोचना जब महापुरुषों के अपमान में बदल जाए, तो यह समाज के लिए हानिकारक हो जाता है। ऐसे तत्वों को बेनकाब करने और उन्हें सही जवाब देने की आवश्यकता है।

भारत की सांस्कृतिक विरासत और उसके महापुरुषों के गौरव को सुरक्षित रखना केवल सरकार या किसी संगठन की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय नागरिक का दायित्व है। अगर हम आज चुप रहे, तो भविष्य में यह समस्या और विकराल रूप ले लेगी। समाज को चाहिए कि वह ऐसे स्वार्थी नेताओं और विचारधाराओं को सिरे से नकार दे और अपने इतिहास व संस्कृति के सम्मान के लिए एकजुट होकर आवाज उठाए।

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