भारतीय संस्कृति में लातों की परम्परा एक लघु गवेषणा
आत्माराम यादव पीव
भारतीय संस्कृति अपने आप में रोचक ओर सनातन परम्पराओं की सूचक है जिसका हर पल मूल्यांकन तथा पुनर्मूल्यांकन करने वाले अनेक विद्वानों ने यथेष्ठ निवर्तनीय निर्विवाद सत्यों का उद्घाटन किया है। मानव मात्र की अपनी सीमायें हैं, अपनी संस्कृति है जिसकी व्याख्या समय, परिस्थिति, घटना ओर विषयपरक अध्यात्म अथवा जीवन के प्रसंगों के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर वह करता रहा है। मनुष्य का शरीर एक ब्रह्मांड माना है जिसमें पंचतत्व, पंचमहाभूत आदि सारा जगत समाहित है। हम यहा शरीर का विशेष ओर महत्वपूर्ण अंग पाद की बात करना चाहेंगे। लात-जिसे पैर, पाँव, गोड़, पद, चरण तथा टाँग, पाद आदि अनेक रूपों से यथा स्थान जरूरत अनुसार पुकारा गया है, न सिर्फ हमारी देह का ही बल्कि हमारी संस्कृति का ही अविच्छिन्न अंग रहा है। फिर प्रश्न उठता है कि इसका क्या कारण है? यह क्यों हुआ? फिर यहीं उत्तर मिलता है कि अनेक अनिर्वचनीय सत्यों की ही भाँति यह भी एक सत्य है कि यदि मानव के पास लात न होते तो वह एक जड प्राणी होता किन्तु इसी जड़ता ने हमें चेतनता की ओर ले जाने वाला साधन यही लात दी है। निश्चय ही हमे यह बात दोहरानी पड़ेगी कि लात ही प्रगति और जीवन का चिन्ह है। लात में सौन्दर्य ओर भक्ति की दिव्यता भी देखी जा सकती है ओर लात को देख वासना आने पर नैतिक पतन एवं मानवीय भाव के तिरोहित होने पर पेड़ पौधे पहाड़ जैसे जड़ता अथवा क्रूरतम पशु बन पाशविकता की चर्मोत्कृष्टता भी कलंक के रूपं में सामने होती है।
आप भी संतुलित ढंग से और बिना पूर्वाग्रहों को मन में लात को एक युगान्तरकारी अस्त्र मानकर स्थान देने का मन बना ले तो लात के विषय में आप जागरूकता होंगे ओर निर्णय लेने को विवश होंगे की सच में ही लात युगांतर करने वाला अस्त्र है जो जाने भूले-भटकों को राह सुझाने वाला एक सशक्त माध्यम रहा है। लात से ही विकास क्रम का मार्ग निकलता है । मानव की प्रगतिशीलता का प्रतिनिधित्व इन्हीं लातों ने किया ओर चाँद तारों सहित अन्तरिक्ष में अपनी विजय का डंका बजाने ये ही लातें पहुंची है किन्तु सर्वत्र अपना लोहा मनवाने वाली इन लातों को हमेशा उपेक्षा ही मिली है ओर साहित्य जगत भी इन लातों के अपने विचारों से लात मारकर उपेक्षित ही किए है। भारतीय संस्कृति में लातों को लेकर अनेक प्रसंग है किन्तु क्या हमारी यह संस्कृति लातों के साथ हुये पक्षपातों ओर पुरोगामी संस्कृति के व्याख्याकारों की उपेक्षाओं का उत्तर देने का साहस करेंगे, शायद कदापि नही। इन्हीं तथ्यपरक विचार में हमारा शीर्षक विषय होने से ये अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि संस्कृति की पूर्ण व्याख्या करते समय हमें लातों की परम्परा पर भी एक दृष्टिपात कर लेना चाहिये । संस्कृति क्या है ? यह सवाल सभी के मन में उठता है ओर मन ही इसका उत्तर देता है की संस्कृति वह है जिसे बिना सोचे विचारे हम बिना झिझक करते है ओर उसके कारण में नहीं झाँकते है। हम से तात्पर्य समाज की वह बिखरी ओर संगठित इकाई है जो एक हो जाये तो अगाध शक्तिशाली हो जाती है ओर यही शक्ति जन जन में प्रवाहित होने लगती है जो संस्कृति का रूप ले लेती है ओर कालांतर में यही वैचारिक जनधारा सबकी चिरपरिचित होने से सभी के लिए सुगम हो जाती है ओर फिर आवश्यक नही की सभी जन एक साथ मिलकर या विचार कर इस परंपरा को अपनाए, सभी इस परंपरा की बन चुकी पगडंडियों पर पूर्व की तरह बिना विचारों पर चलते रहेंगे।
आप सभी सुधिपाठक जन को स्मरण ही होगा कि सुप्रसिद्ध मुनि भृगु ने क्षीर सागर में शेषनाग पर लेटे ओर लक्ष्मी के पैर दबाते समय समस्त लोको के स्वामी सत्ताधारी श्रीहरि विष्णु को जो लात मारी थी और उससे उनका जो कुछ खोया था, सो उसका आज तक पता नहीं चल पाया है, यह सतयुग की बात कलियुग के उनके एक भक्त रहीम ने स्वीकारी है –का रहीम हरि को गयो, जो भृगु मारी लात ? अर्थात् जो भृगु ने लात मारी उससे हरि का क्या गया। यदि शब्दों की आत्मा होती है, तो लात की भी अपनी आत्मा है। लात कहने मात्र से ही एक स्फूर्ति एक आनन्द का बोध होता है। लात ही एक ऐसा शब्द है जो कर्ता भी है कर्म भी है, क्रिया भी है ओर विशेषण आदि भी है जो सभी भाषाओं के विविध रंग रूपों में प्रयोग होता है। इस प्रकार के शब्दों की अवहेलना करना अपनी संस्कृति को ही अस्वीकार कर देने के बराबर समझा जा सकता है।
लात का अपना ही सौन्दर्य है। अगर लात स्त्री की, या पुरुष की बात की जाये तो उसकी सुंदरता के चित्रण में स्त्री की लात का अप्रतिम सौंदर्य को शृंगार रस में अभिव्यक्त करते करते कितने ही दीवाने हो चुके होंगे, कितने बाबा बैरागी हो चुके होंगे, कितने पागल हो चुके होंगे ओर कितने काव्य मर्मज्ञ होंगे इसकी प्रमाणित जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं है ओर न ही यह जुटाने का प्रयास किसी ने किया है, आप यह समझने की भूल न कीजिएगा की जो किसी ने नहीं किया है वह मैं आपको करके दूंगा ? यह शोध मेरा विषय नहीं, मैं तो लात खाने वाले, लात मारने वाले, लातों के नीचे दबे कुचले लोगों की पीड़ाए सुनने के बाद यह लातों की परंपरा पर लिखने बैठ गया वरना यह समझ लीजिये यह विषय एक जन्म में पूरा लिखा जाना संभव नहीं है, इसलिए मैं इस विषय को छूकर आगे निकल रहा हूँ। अब लात की बात शुरू करता हूँ, लात तो लात जैसी ही होती है किन्तु उसे सुदरता या कुरूपता की कसौटी पर कसने का काम विवेक पर निर्भर करता है। हमारा विवेक वैचारिकता के मकड़जाल में अगर यथार्थ को देख अन्य कुमार्गी विचारों के संसर्ग में हो तो सुंदरता उसके लिए कुरूप भी हो सकती है तब वह लात मैं सौंदर्य नहीं वासना देखेगा। यहा सुंदरता नही कुरूपता है किन्तु कुरूपों के लिए कुरूपता भी सुंदरता दिखाई देती है। देखा जाये तो भारतीय संस्कृति में लातों को समस्या भी निरूपित किया जाकर सभी की वैचारिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जा सकता है अथवा लातों को वैचारिक क्रांति की धारा में मोड़कर पदानुवंदन किया जा सकता है।
लात से मोक्षप्राप्ति के मार्ग को रामायण में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुंदर व्याख्या से समझाया है कि अहिल्या को भगवान श्रीराम कि चेतनापुंज लात के स्पर्श से शिला से नारी बनी अर्थात राम के स्पर्श से जड़ता मानवता में परिवर्तित हो गई यानि लात के स्पर्श से मोक्ष प्राप्त किया। इसलिय पाँव का वंदन को मैंने पदानुवन्द्न कहा है। इस उदाहरण के बाद ध्यान रहे लात किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, बल्कि यह संदेश देती है कि लात एक जीवित शक्ति का उदाहरण बन सकती है, इसलिए लातों के महत्व को कम नहीं आँका जा सकता है। निशाचर राज साम्राज्यवादी रावण ने अपने भाई विभीषण के देशद्रोही विभीषण को जब देश निकाला का दण्ड, बिना मुकदमा चलाये हुये ही दे दियो तो लात के माध्यम से ही यह क्रिया सम्पन्न हुई थी। त्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है- ‘तात-लात रावन मोहि मारा यानि पाँव का वंदन को ही पदानुवन्द्न कहा गया है।
अंत में यह भी बताना चाहूंगा कि हम ओर आप चौबीसों घंटे अपने अपने लेखन में एक दूसरे को लात मारना, लतियाना, लात खाना, दुलत्ती झाड़ना यह सब किसी न किसी रूप में करते आ रहे है ओर अपना नाम उजागर नही होने देना चाहते है। हिन्दी साहित्य जगत में कोई बहुत ही सूक्ष्म रूप में ओर कोई विराट रूप में लात मारते खाते आ रहे है। अनेक साहित्यकारों और कलाकारों के जीवन में लात ने जो विलक्षण व्याकुलता, भावों की टकराहट, चेतना तथा प्रकाश भर दिया है, उससे उऋण होना असम्भव है। प्रसिद्ध है कि तुलसीदास को उनकी पत्नी ने इसी माध्यम से समझाया था। सूरदास को भी चिन्ता-मणि नामक वेश्या के यहाँ इसी प्रकार के मुहावरे का सामना करना पड़ा था। कहा जाता है कि भौजाई की दुलत्ती ने रीतिकाल में भूषण की कविता को जन्म दिया। आधुनिक काल में भी लातों के सौजन्य से प्राप्त अनेक कृतियाँ हमारे साहित्य को गौरवान्वित कर रही है। वस्तुतः सत्य यहीं है कि जब तक कलाकार के मन पर कोई ठेसात्मक अनुभूति नहीं होती तब तक उसमें मानवीय करुणा की भावना का संचार हो ही नहीं पाता ! साहित्य की वाणी का दर्द इत्ती लात के ही माध्यम से फूटता है। यही सच्चे दर्द की कसौटी है।