विचार

आखिर क्यों बढ़ रहे हैं पुलिसकर्मियों पर हमले

(राकेश अचल-विनायक फीचर्स)
एक छोटा सा सवाल है कि आखिर देश के हर हिस्से में पुलिस क्यों पिटती है ? क्या देश में जनता को खाकी वर्दी से अब डर नहीं लगता जबकि पुलिस की वर्दी का दूसरा नाम ही खौफ है। मध्यप्रदेश के मऊगंज से लेकर भागलपुर तक और भागलपुर से लेकर जहानाबाद और नागपुर तक पुलिस को पिटते देख ये सोचने पर विवश होना पड़ रहा है कि हिंदुस्तान में आखिर क्या वजह है जो पुलिस का इकबाल मिट्टी में मिल गया है ?

सबसे पहले मध्यप्रदेश के मऊगंज की बात करते हैं। मऊगंज में न कोई अबू आजमी है और न किसी औरंगजेब की कब्र ,लेकिन यहां जो बवाल हुआ उसमें एक पुलिस कर्मी की मौत हो गयी और अनेक घायल हो गए। मध्य प्रदेश के मऊगंज जिले के गड़रा गांव में दो गुटों के बीच झगड़े की कीमत पुलिस को चुकानी पड़ी। पुलिसकर्मियों की झड़प ने ऐसा स्वरूप लिया कि एक एएसआई रामचरण गौतम की जान चली गई। वहीं तहसीलदार समेत कई पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हुए हैं। यहां न कोई हिन्दू था और न कोई मुसलमान। पक्षकार आदिवासी थे ,लेकिन वे पुलिस पर भारी पड़े। मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं।

मध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू हुए चार साल हो गए हैं ,हालाँकि पुलिस कमीश्नर प्रणाली केवल भोपाल और इंदौर शहर में लागू है लेकिन प्रदेश में पुलिस का इक़बाल बुलंद नहीं हो पाया। कारण ये है कि प्रदेश की पुलिस भ्रष्ट होने के साथ ही साम्प्रदायिक और नेताओं की कठपुतली बन गयी है। पुलिस में सिपाही से लेकर पुलिस अधीक्षक तक की पदस्थापना में सियासत का दखल है और नतीजा ये है कि लोग अब पुलिस की वर्दी का न सम्मान करते हैं और न पुलिस से खौफ कहते हैं।

अब बात बिहार की कर लेते है। यहां तो पुलिस न सिर्फ पिटती है बल्कि नेताओं के इशारे पर नाचने के लिए भी मजबूर की जाती है ,और आखिर में महकमें की प्रताड़ना का शिकार भी पुलिस वाले ही होते हैं। लालू प्रसाद के बेटे तेजप्रताप के इशारे पर होली के दिन नाचने वाले एक सिपाही को आखिर निलंबित कर दिया गया। बिहार में बेखौफ बदमाश पुलिस पर हमला करने से भी बाज नहीं आ रहे। तीन दिनों पहले अररिया जिला के फुलकाहा थाना में तैनात एएसआई (जमादार) राजीव रंजन मल्ल की धक्का-मुक्की में मौत के बाद फिर मुंगेर में मुफस्सिल थाना के एएसआई संतोष कुमार सिंह की धारदार हथियार से हत्या कर दी गई। वे 14 मार्च की रात आपसी विवाद की सूचना पर उसे सुलझाने नंदलालपुर गांव गए थे। जहां बदमाशों ने उन पर हमला कर दिया। इसमें एएसआई संतोष गंभीर रूप से घायल हो गए थे, उनके सिर पर चोट लगी थी।

पंजाब में तो हालत और भी ज्यादा खराब हैं। सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की राज्यसभा सांसद स्वाति मालीवाल ने कहा कि पूरा पुलिस महकमा केजरीवाल की सेवा में लगा हुआ है। पंजाब में कानून व्यवस्था बेहद खराब है। पुलिस के साथ जो व्यवहार मध्यप्रदेश के मऊगंज में हुआ वैसा ही व्यवहार उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में भी हुआ। जिले के अजगैन कोतवाली के छेड़ा गांव में 14 मार्च को शराब के नशे में दो भाइयों में विवाद के बाद पथराव हुआ था। पहले आरोपियों के पिता रामस्वरूप की हृदयगति रुकने से मौत हो गई थी। वहीं, पड़ोसी धीरेंद्र की नाक में पत्थर लगने से उसकी मौत हो गई थी। पुलिस आरोपी भाइयों को हिरासत में लेकर जा रही थी तभी कुछ ग्रामीणों ने रास्ता रोक लिया और दोनों आरोपियों को जीप से खींचने का प्रयास किया था।

भारत में पुलिस व्यवस्था बहुत पुरानी है। मुगलों और अंग्रेजों से भी पुरानी। लेकिन मुगलों और अंग्रेजों ने पुलिस व्यवस्था को और मजबूत किया और इसका इकबाल भी बुलंद किया। कोटवार से लेकर कोतवाल तक और आज सिपाही से लेकर महानिदेशक तक का इकबाल होता है ,किन्तु आजादी के बाद देशभक्ति -जन सेवा का ध्येय लेकर बनाई गयी पुलिस या तो जुल्म का पर्याय बन गयी या फिर कालांतर में सत्ता प्रतिष्ठान की कठपुतली। पुलिस बल में समय के साथ सुधार भी हुए लेकिन पुलिस आज भी जनता की जरूरतों से ज्यादा सत्ता प्रतिष्ठान की जरूरतों का ख्याल रखती है। जनता के मन में पुलिस के लिए कोई आदरभाव नहीं है क्योंकि पुलिस अपराधियों,नेताओं और सत्ता प्रतिष्ठानों के गठजोड़ का एक हिस्सा बनकर रह गयी है।

आपको बता दूँ कि संविधान के तहत, पुलिस राज्यों द्वारा शासित एक विषय है। इसलिए, 29 राज्यों में से प्रत्येक के पास अपने स्वयं के पुलिस बल हैं। केंद्र को कानून और व्यवस्था सुनिश्चित करने में राज्यों की सहायता के लिए अपने स्वयं के पुलिस बलों को बनाए रखने की भी अनुमति है। केवल केंद्र शासित क्षेत्रों में पुलिस केंद्र के अधीन होती है ,पुलिस के आधुनिकीकरण पर बेहिसाब खर्च के बावजूद न पुलिस की मानसिकता बदली और न व्यवहार । आज भी आम आदमी पुलिस से डरता है। आम इंसान यही समझता है कि पुलिस मतलब समस्या को आमंत्रण देना है। पुलिस के प्रति समाज में घृणा है /पुलिस न खुद क़ानून का पालन करती है और न क़ानून का पालन करा पाती है।

मैंने दुनिया के अनेक देशों में पुलिसिंग देखी है। कहीं भारत की पुलिस कुछ आगे है तो कहीं बहुत पीछे । हमारी पुलिस न इंग्लैण्ड की पुलिस बन पायी और न अमेरिका की पुलिस। भारत की पुलिस में राजनीति का दखल इतना बढ़ गया है कि पुलिस अपने विवेक से कोई काम कर ही नहीं सकती। पुलिस नेताओं के हुक्म की गुलाम बनकर रह गयी है और इसका नतीजा है कि पुलिस पर पूरे देश में हमले हो रहे हैं ,पुलिस कर्मी मारे जा रहे हैं ,लेकिन कोई इसकी जड़ तक नहीं जाना चाहता। सब क्रिया की प्रतिक्रिया तक ही सीमित हैं। पुलिस का इकबाल बुलंद किये बिना पुलिस कर्मियों पर होने वाले हमले रुकने वाले नहीं हैं। पुलिस का व्यवहार बदलना बेहद जरूरी है।

इस समय दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश भारत में करीब 21.41 लाख पुलिसकर्मी हैं, लेकिन कुल पुलिस फोर्स में महिलाओं का औसत महज 12 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा है। भारत में औसत करीब 646 लोगों पर एक पुलिसकर्मी का बैठता है। हालांकि, इसमें राज्यों के विशेष सशस्त्र पुलिस बल और रिजर्व बटालियन के पुलिसकर्मियों की संख्या भी शामिल है। कुछ राज्यों में पुलिस के पास अपना वाहन या स्पीडगन नहीं है तो कुछ पुलिस स्टेशनों में वायरलेस या मोबाइल फोन तक नहीं है।

पुलिस अनुसन्धान एवं विकास ब्यूरो के आंकड़ें बताते हैं कि राज्यों में कुल मिलाकर 27.23 लाख पदों में से कुल 5.82 लाख से ज्यादा पुलिसकर्मियों के पद खाली हैं। इनमें सबसे ज्यादा सिविल पुलिस के 18.34 लाख में से 4 लाख पद खाली हैं। सिविल पुलिस ही थाना क्षेत्रों में गश्त करने, मौका-ए-वारदात पर पहुंचने, किसी केस की छानबीन करने और कानून-व्यवस्था संभालने का का काम करती है। इसके अलावा, देश में जिला सशस्त्र रिजर्व पुलिस बल के 3.26 लाख पदों में करीब 87 हजार पद खाली हैं. वहीं, राज्य विशेष सशस्त्र बल के 3.95.लाख पदों में से 63 हजार और रिजर्व बटालियन के 1.69 लाख पदों में से 28.5 हजार पद भरे नहीं जा सके। सरकारों का बस चले तो वो पुलिस में भी संविदा पर भर्तियां कर दे। (विनायक फीचर्स)

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