त्रितीर्थी तीर्थंकरों की पुरातन प्रतिमाएँ
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, ‘मनुज’, इन्दौर
गंधर्वपुरी में अन्य पुरातात्त्विक प्रतिमओं के साथ जैन पुरातत्त्व प्रभूत मात्रा में प्राप्त है। यहाँ एकल, द्वितीर्थी, त्रितीर्थी, पंचतीर्थी, सप्ततीर्थी चतुर्विंशतिका आदि प्रतिमाएँ भी प्राप्त हुई हैं। इस आलेख में हम यहाँ प्राप्त छह त्रितीर्थी प्रतिमाओं का विश्लेषण करेंगे। त्रितीर्थी प्रतिमाएँ नैनागिरि, खजुराहो और देवगढ़ में भी प्राप्त हुई हैं। इनका काल दसवीं से बारहवीं शताब्दी है। सर्वेक्षण में हमें मध्यप्रदेश के देवास जिलान्तर्गत गंधर्वपुरी ग्राम के स्थानीय राजकीय संग्रहालय में निम्नांकित छह त्रितीर्थी प्रतिमाएँ देखने को मिलीं हैं-
प्रथम त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा – त्रितीर्थी अर्थात् एक ही शिलाखण्ड में एक साथ तीन प्रतिमाएँ, चाहे बड़ी हो या लघु। यहाँ त्रितीर्थी से आशय है मूलनायक बड़ी प्रतिमा के साथ परिकर में दो अन्य लघु जिन प्रतिमाएँ।
इस त्रितीर्थी के पादपीठ में मध्य में चक्र, उसके दोनों ओर विरुद्धाभिमुख बैठे हुए दो सिंह, मध्य में कुछ पुष्पगुच्छ जैसी आकृति, पादपीठ पर चरणचौकी, उसपर पद्मासनस्थ मुख्य तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्णित है। मूर्ति का श्रीवत्स क्षरित हो गया है, कुछ अंश दिखाई देता है। उष्णीस सहित कुंचित केश हैं, शिर के पीछे प्रभावल है। इस सपरिकर प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में पूर्ण आभूषण-भूषित चँवर वाहक हैं, उनके ऊपर और मुख्य प्रतिमा की ग्रीवा के समानान्तर दोनों ओर एक-एक पद्मासन जिन उत्कीर्णित हैं। उससे ऊपर माल्यधारी पुष्पवर्षक देव हैं। ये देव दोनों ओर सपत्नीक हैं। जिन-शीश की ओर देव और उसके पीछे देवी है। वितान का अधिकांश उत्कीर्णन खण्डित है किन्तु दायीं और गजलक्ष्मी का गज अवशिष्ट है।
द्वितीय त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा- इस प्रतिमा का पादपीठ भग्न और अप्राप्त है। इस पद्मासन प्रतिमा की ग्रीवा-त्रिवली, स्कंधों को स्पर्श करते कर्ण और स्कंधों पर लटकी हुई केश-लटिकाएँ स्पष्ट हैं। इसके भी उष्णीष सहित कुंचित केश दर्शाये गये हैं, सुन्दर प्रभावल भी है। इस प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में चँवर वाहक हैं, उनके ऊपर प्रथम प्रतिमा के समान दोनों ओर एक-एक पद्मासन जिन उत्कीर्णित हैं। उससे ऊपर सपत्नीक माल्यधारी पुष्पवर्षक देव हैं। वितान में कलात्मक त्रिछत्र है, उसपर मृदंगवादक का ढोल अवशिष्ट है, त्रिछत्र के दोनों ओर से मृदंगवादक के निकट तक एक एक नर्तकी उत्कीर्णित है।
तृतीय त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा- यह कायोत्सर्ग अर्थात् हस्तलंबित समपादासन में खड़ी हुई प्रतिमा है, किन्तु इसका पादपीठ सहित घुटनों से नीधे का भाग खण्डित और अप्राप्त है। श्रीवत्स, उष्णीष सहित कुंचित केश और प्रभावल युक्त उत्कीर्णित हैं। परिकर में चँवरवाहक प्रतिहारी, तदोपरि दोनों पाश्वों में एक-एक कायोत्सर्गस्थ जिन और मस्तक के दोनों ओर माल्यधारी देव हैं। ये देव एकल हैं अर्थात् युगल नहीं हैं। वितान में त्रिछत्र है, उसके ऊपर प्रथम दृष्ट्या प्रतीत होता है कि पद्मासनस्थ जिन है, किन्तु वह भ्रांति हो जाती है, उसपर दुंदुभिवादक हाथों से ढोल पर थाप देता हुआ दर्शाया गया है।
चतुर्थ त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा- इस कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा का कटि से नीचे का भाग खण्डित और अप्राप्त है। वक्ष पर श्रीवत्स, सुन्दर मुखमुद्रा, नासाग्रदृष्टि, उष्णीष सहित कुंचित केश और कलात्मक प्रभावल शिल्पित है। परिकर में पादपीठ आदि की क्या स्थिति रही होगी कहा नहीं जा सकता। बायीं ओर के चँवरवाहक के शिर के ऊपर पादपीठ पर कायोत्सर्गस्थ लघु जिन उत्कीर्णित हैं, यही स्थिति दाहिने पार्श्व के भग्न शिलाखण्ड से पूर्व रही होगी। सपत्नीक माल्यधारी पुष्पवर्षक देव हैं। वितान में तीन छत्र हैं, उसपर दुंदुभिवादक एक बड़े से ढोल पर थाप देते हुए दर्शाया गया है। अशोक वृक्ष की डालियां व पत्रगुच्छ उत्कीर्णित हैं।
पंचम त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा- यह कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा त्रितीर्थी की कोटि में केवल इस आधार पर ली जा रही है कि इसका शिरोभाग और उससे ऊपर का वितान भाग खण्डित व अप्राप्त होने से केवल तीन जिन प्रतिमाएँ ही अवशिष्ट हैं। अन्यथा इसका शिल्पांकन सप्ततीर्थी के समान है, क्योंकि पार्श्वों में मानस्तंभ के समान शिल्पन है जिनके अधोभाग में यक्ष-यक्षी, मध्य में कायोत्सर्गस्थ जिन और ऊपर पद्मासन जिन का उत्कीर्णन है।
इसमें तीर्थंकर के चरणों के समानान्तर दोनों पार्श्वों में चामरधारी हैं, उनके बाद बाह्य ओर स्तंभ के अधोभाग में ललितासन में यक्ष-यक्षी हैं। मूर्तिशास्त्रों के प्रतिकूल दाहिनी ओर यक्षी है और बायें ओर यक्ष उत्कीर्णित है। लीक से हटकर अंकन को प्रतिमा की विशिष्टता कहा जाता है। कायोत्सर्गस्थ लघु जिन के समानान्तर बाह्य भाग में एक खड़ी मुद्रा में देव या देवी है। वहिर्मुख शार्दूल भी उत्कीर्णित है। पूर्ण प्रतिमा के परिकर में अतिविशिष्ट अंकन रहा होगा।
षष्ठ त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा- यह कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा भी लगभग पंचम त्रितीर्थी प्रतिमा के समान ही है। यह नीचे कुछ अधिक खण्डित है, इस कारण यक्ष-यक्षी पूर्ण स्पष्ट नहीं हैं। बाह्य ओर जो आकृति है वह स्त्री आकृति स्पष्ट है।
इनमें विशेषता यह है कि- 1. पद्मासन मुख्य जिन प्रतिमा के परिकर में लघु जिन प्रतिमा भी पद्मासन हैं और कायोत्सर्गस्थ मुख्य जिन प्रतिमा के परिकर में लघु जिन प्रतिमा भी कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। 2. मूर्तिशास्त्रों के अनुसार दाहिनी ओर तीर्थंकर के यक्ष का स्थापन और बायें ओर यक्षी का स्थापन होना चाहिए, किन्तु उपरोक्त पंचम त्रितीर्थी प्रतिमा में दाहिने पार्श्व में यक्षी का शिल्पन है और बायें पार्श्व में यक्ष उत्कीर्णन है। उक्त सभी प्रतिमाएँ 10वीं से 12वीं शती की अनुमानित की गईं हैं।