पत्रकारों के अधिकारों पर हमला

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर करने की कोशिश?
1. मीडिया सलाहकार की दादागीरी!
2. विधानसभा अध्यक्ष की प्रेस वार्ता में पत्रकार को चुप कराने की कोशिश
3. विधानसभा में लोकतंत्र की हत्या? मीडिया सलाहकार ने पत्रकार को रोका!
4. पत्रकारों की सुरक्षा पर सवाल उठाना गुनाह? विधानसभा अध्यक्ष के सलाहकार ने पत्रकार को झिड़का
5. उत्तर प्रदेश में चौथे स्तंभ पर हमला! विधानसभा अध्यक्ष की प्रेस वार्ता में पत्रकार की आवाज दबाने की कोशिश
6. पत्रकारों की सुरक्षा पर सवाल उठाना नागवार गुजरा, मीडिया सलाहकार ने प्रेस वार्ता में दिखाई धौंस
7. क्या मीडिया की आज़ादी पर खतरा? प्रेस वार्ता में पत्रकार को चुप कराने का प्रयास
8. पत्रकारों की सुरक्षा पर बढ़ता खतरा
9. आवश्यक सुधार और सुरक्षा की मांग
लखनऊ। उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना की प्रेस वार्ता के दौरान एक अप्रत्याशित घटना घटी, जिसने एक बार फिर पत्रकारों के अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल खड़े कर दिए। जब पत्रकार नैमिष प्रताप सिंह ने सीतापुर के पत्रकार राघवेन्द्र बाजपेई की हत्या और राज्य में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाया, तो विधानसभा अध्यक्ष के मीडिया सलाहकार श्रीधर अग्निहोत्री ने उन्हें बीच में ही झिड़क दिया और सवाल करने से रोकने की कोशिश की।
यह घटना लोकतंत्र के चौथे स्तंभ, यानी मीडिया, पर बढ़ते दबाव को दर्शाती है। पत्रकारों का मूल कार्य जनता के मुद्दों को उठाना और सरकार से जवाबदेही सुनिश्चित करना है, लेकिन जब सत्ता के करीबी लोग ही असहज होकर पत्रकारों को चुप कराने का प्रयास करने लगें, तो यह एक गंभीर समस्या बन जाती है।
हाल के वर्षों में पत्रकारों पर हमले और उनकी हत्याओं की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। सीतापुर के पत्रकार राघवेन्द्र बाजपेई की हत्या इसका ताजा उदाहरण है, लेकिन यह कोई अकेली घटना नहीं है। देशभर में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जहां निडर पत्रकारों को उनकी रिपोर्टिंग के चलते निशाना बनाया गया।
पत्रकारों का काम सत्ता से सवाल पूछना और जनता की आवाज को बुलंद करना है, लेकिन जब प्रेस वार्ताओं में ही उन्हें चुप कराने की कोशिश होती है, तो यह एक खतरनाक संकेत है। प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र की बुनियादी शर्तों में से एक है, और यदि पत्रकार स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते, तो इसका असर न केवल मीडिया पर बल्कि पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली पर पड़ता है।
इस घटना के बाद पत्रकारों के एक वर्ग ने न केवल इस घटना की कड़ी आलोचना की, बल्कि प्रेस वार्ता के भोज का बहिष्कार करने की भी बात कही। पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लबों ने इस घटना को लोकतंत्र के खिलाफ बताया और मांग की कि पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए।
इस घटना ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि पत्रकारों की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा के लिए सख्त कानूनों की जरूरत है। सरकार को न केवल पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि कोई भी सरकारी या गैर-सरकारी अधिकारी पत्रकारों की आवाज को दबाने की कोशिश न करे।
यदि इसी तरह पत्रकारों को सवाल पूछने से रोका जाता रहा, तो इससे लोकतंत्र कमजोर होगा और जनता की आवाज दब जाएगी। यह वक्त है कि पत्रकारों की स्वतंत्रता को और मजबूत किया जाए और उनकी सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाए, ताकि वे बिना किसी डर के अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकें।