पञ्चभूतों के मूलमंत्र से पाए धन संपदा ओर निरोगी जीवन
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
पंचमहाभूत जिन्हे पंचतत्व भी कहा है से निर्मित यह काया करोड़ों ब्रह्माण्ड का भार संभाले है ओर यह मन की सजगता ओर जागृति के कारण स्थूल शरीर के सुख,दुख, रोग-पीड़ा को उठाये हुए है किन्तु जो जीवन के अवधारित मूल्यों में पंचतत्व को जान चुका है वह उनके मूलमंत्रों से अपने लिए इस सबसे मुक्ति के साथ जीवन की उच्च शिखर यात्रा की ओर अग्रसर हो मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। इन बातों के प्रति अज्ञानता ओर नैतिक मूल्यों के परित्याग के कारण ही हम अधोगामी जीवन जीते हुये लघु से अति लघूत्तम हो गए है आवश्यकता है आचार्य मनीष जी की दिव्य साधना सहित अन्य योगाचार्यों के उपयोगी वीडियो या अपने आसपास के योगकेन्द्रो के कुशल गुरु की सेवाए ओर मार्गदर्शन लेकर साधना को नियमानुसार अनुकरण कर जीवन में उतारा जाए ताकि पृथ्वी, जल, तेज/अग्नि, वायु और आकाशरूपी पंचतत्व जिसे पंचभूत भी कहा है जिससे हमारा शरीर बना है, की उचित साधना की जा सके। शरीर में इन पंचतत्व की धारणा का अर्थ है क्रमशः चित्त को इन्हीं में बाँधना। यद्यपि ये सब चित्तमें बंधे हुए हैं, ओर पैर से शीश तक अर्थात मस्तिष्क तक इनका आभामण्डल है वही हमारे हाथों की पांचों अंगुलियों में भी इनके केंद्र है, जिससे अंगलियों से शरीर में जिस तत्व की पीड़ा, दुख आदि है, को नियंत्रित कर बिना ओषधि उपचार का माध्यम है, जिसे ऋषि परंपरा से हमारे पूर्वज लाभ उठाकर कंचन काया ओर कंचन माया पाया करते थे। हम अगर थोड़ा सा भी उनके विस्मृत हुए ज्ञान के प्रति सजग रहे तो जीवन में चिकित्सालय का मुंह देखना नहीं पड़े, खान पान आदि का ध्यान रख हम निरोगी काया का अभिमान भी करने में सक्षम हों सकेंगे। प्राचीन ऋषि परंपरा के इस अनूठे ज्ञान का उल्लेख पुराणों –उपनिषदों ओर संहिताओ में प्रचुर मात्रा मे है, जिसका लाभ लेने हेतु आज से ही तैयार हो अपने शरीर के रोगों को विदा कर निरोगी काया एवं सिद्धियों के स्वामी बनने की उत्सुकता ही आपको कामयाबी देगी। हालांकि मैंने अपनी पुस्तक देहकलश मे इस विषय को विवेचित करने वाले ग्रन्थों आदि का उल्लेख कर सविस्तार उल्लेख किया है जिसे पाठकों ने सराहा भी है।
सफलता के पायदान पर कदम रखने से पहले आपको अपने मन की दुर्बलता जो बहुत दिनों से अभ्यस्त कर आपको संसार के सारे दुखों के द्वंद से मुक्त नही होने दे रही है ओर मन जो चिन्मय है अपने चिन्मयत्व का अनुभव नहीं कर सुख ओर शांत नहीं है, इसके लिए मन को इसे ग्रहण करने की भावना ओर अभ्यास के लिए तैयार कीजिये। मन को पञ्चभूतों की धारणा के लिए तत्पर करना इतना सरल नहीं होगा जितना आप समझ रहे है, क्योकि आप जानते है कि आपके जीवन की अल्पज्ञता जिसे आप सर्वज्ञता समझते है, मन उस अल्पज्ञता के कारागार को अखण्ड स्वतन्त्रता का किला समझता है, उन बेड़ियों को तोड़कर पंचतत्व के अनंत आकाश में पंख फैलाये उड़ना हर जंजीरों को तोड़ना है। अर्थात आपको अपने वास्तविक स्वरूप में विचरण करना है, अपने स्वरूप की उपलब्धि ही आपकी साधना का उद्देश्य है, यद्यपि मार्गमें सभी प्रकारकी सिद्धियों भी मिलती हैं। शरीर की शुद्धि के लिए अनेक साधनों में एक नाड़ी शोधन है जिसके दो भेद है पहला समनु ओर दूसरा निर्मनु। बीज मंत्र के द्वारा जो नाड़ी शोधन किया जाता है उसे समनु कहा गया है ओर धौति कर्म से होने वाले शौधन को निर्मनु कहा है। समनु शौधन में पंचतत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश से बने इस शरीर के प्रत्येक तत्व के मूलमंत्र को नासिका द्वारा स्वांस प्रशान्स के कुंभक ओर पूरक क्रिया से तेजोमय बनाया जाता है। इसमें जिस तत्व का मूल मंत्र का जाप किया जा रहा है उस तत्व का ध्यान करने से सिद्धि की सफलता मिलती है।
मनुष्य शरीर में पैर से लेकर शीश अर्थात मस्तिष्क तक ये पंचभूत का आभामंडल है ओर उनके द्वारा शरीर में संतुलन बनाए रखने के लिए उनके बीज मंत्र है जिसे प्रतिदिन 20 मिनट तक उच्चारित करने से शरीर के अंदरूनी होने वाली कंपन से पूरा शरीर भीतर से निरोगी होकर सभी प्रकार के रोगों को शरीर से विदा करने लग जाता है। पैर से जानु पर्यन्त अर्थात जननेन्द्रिय तक पृथ्वी मण्डल है। उसका वर्ण हरताल के समान पीला है, उसकी स्थिति चतुष्कोण है, उसके अधिष्ठात्री देवता ब्रह्मा हैं, पृथ्वी का बीजमंत्र ‘लं’ है। प्राणों को स्थिर करके पाँच घटिका पर्यन्त उपर्युक्त मंत्र की धारणा करते-करते ऐसा अनुभव होने लगता है कि मैं एक शरीर में आबद्ध अथवा शरीर नहीं हूँ। मैं सम्पूर्ण पृथ्वी हूँ। ये बड़े-बड़े नदी-नद मेरे शरीर की नस नाड़ियाँ हैं और सम्पूर्ण शरीर के रोग अथवा आरोग्य के कीटाणु हैं। समस्त पार्थिव शरीर मेरे अपने ही अंग हैं। घेरण्ड संहिता में कहा गया है कि पूर्व प्रकार से पृथ्वी की धारणा करके जो उसे हृदय में प्राणों के साथ चिंतन करते हैं वे सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। शारीरिक मृत्यु पर उनका आधिपत्य हो जाता है और सिद्ध होकर वे पृथ्वी तल में विचरण करते हैं।
योगी याज्ञवल्क्य ने कहा है कि पृथ्वी-धारण सिद्ध होने पर शरीर में किसी प्रकार के रोग नहीं होते। जल-धारणा इस प्रकार की जाती है- जानु से लेकर पायु-इन्द्रिय पर्यन्त जल का स्थान है जबकि कुछ को आचार्य के मत में जानु से लेकर नाभि पर्यन्त जल का स्थान है। जलमण्डल शंख, चन्द्रमा और कुन्द के समान क्षेत्र-वर्ष है, इसका बीज अमृतमय ‘वं’ है। इसके अधिष्ठात्री देवता चतुर्भुज, पीताम्बरधारी, शुद्ध स्फटिक मणि के समान श्वेत-वर्ण मन्द-मन्द मुस्कराते हुए परम कोमल भगवान् नारायण हैं। इस जलमंडल का चिंतन करके प्राणों के साथ इसको हृदय में ले आवे और पाँच घटिका पर्यंन चिंतन करें। इसके चिन्तन से ऐसा अनुभव होने लगता है कि में जल-तत्व हूँ । पृथ्वी का कण-कण मेरे अस्तित्व से ही निग्ध है। स्वर्गीय अमृत और विष दोनों मेरे स्वरूप हैं। कुसुमों की सुकुमारता और पाषाणों का पिण्डी भाव मेरे ही कारण है। पृथ्वी मेरा ही परिणाम है। में ही पृथ्वी के रूप में प्रकट हुआ हूँ। मैं ही नारायण का आवास स्थान हूँ। अनुभवी संतों ने कहा है कि ‘वं’ मंत्र से जल-धारणा सिद्ध हो जाने पर समस्त ताप मिट जाते है। अन्तःकरण के विकार धुल जाते हैं। अगाध जल में भी उसको मृत्यु नहीं होती।अग्नि अथवा तेज पंचभूत को लेकर धारणा है कि नाभि क्षेत्र इन्द्रिय से लेकर हृदयपर्यन्त अग्नि-मण्डल है। इसका वर्ण रक्त है, आकार त्रिकोण है। इसका बीजमंत्र ‘रं’ है। इसके अधिकात्री देवता रुद्र हैं। इनका चिन्तन करते हुए प्राणों को स्थिर करे।
जब अग्नि का महामंत्र ‘रं’ सिद्ध हो जाती है, तब ऐसा अनुभव होता है कि सम्पूर्ण वस्तुओं का रंग-रूप जो आँखों से देखा जाता है मैं ही हूँ। मणियों की चमक-दमक, पुष्योंका सौन्दर्य और आकर्षण मेरे ही कारण है। सूर्य, चन्द्रमा और विद्युत् के रूप में मैं ही प्रकाशित होता हूँ। जल और पृथ्वी मेरी ही लीला हैं। सबके उदर में रहकर मैं ही शरीर का धारण और पोषण करता हूँ। सबके नेत्रों के रूप में प्रकट होकर मैं ही सब कुछ देखता हूँ। समस्त देवताओं का शरीर मेरे द्वारा बना है। पाँच घटिका-पर्यन्त अग्नि का यह मंत्र ‘रं’ सिद्ध होने से कालचक्र का भय नहीं रह जाता। साधक का शरीर यदि धधकती हुई आग में डाल दिया जाय तो वह जलता नहीं। इस धारणा में रुद्र का चिन्तन इस प्रकार किया जाता है:- रुद्र भगवान मध्याह्न कालीन सूर्य के समान प्रखर तेजस्वी हैं. आँखें तीन हैं। सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाए हुए हैं, प्रसन्नता से वर देने को उत्सुक हैं।
वायुधारणा इस प्रकार की जाती है-हृदय से लेकर भौंहों के बीच तक वायुमंडल है, इसका वर्ण अञ्जन-पुछ के समान काला है। यह अमूर्त तत्व शक्ति रूप है, इसका बीज है ‘यं’। इसके अधिष्ठात्री देवता है-ईश्वर। प्राणोंको स्थिर करके हृदय में इसका चिंतन करना चाहिये। इसकी भावना जब पाँच परिका तक होने लगती है, तब ऐसा अनुभव होता है कि मैं वायु हूँ। अग्रि मेरा ही एक विकास है। इस अनन्त आकाश में सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी आदि को मैंने हो धारण कर रखा है। यदि मैं नहीं होता तो ये सब इस शून्य में निराधार कैसे टिक पाते? मेरी सत्ता ही इनकी सत्ता है। प्रत्येक वस्तु में जो आकर्षण-विकर्षण शक्ति है. वह में ही हूँ। ये ब्रह्माण्ड मण्डल मेरे क्रीड़ा कन्दुक हैं, मैं गतिस्वरूप हूँ, सबकी गतिर्थों मेरी कला हैं, समुद्र में में ही तरंगित होता ओर उछलता हूँ। सबका साँसोंच्छ्वास बनकर में ही सबको जीवन-दान कर रहा हूँ। मेरी गति अबोध है। शास्त्रों में कहा था है कि यह वायु-धारणा सिद्ध होने पर साधक निर्द्वन्द भाव से आकाश में विचरण कर सकता है। जिस स्थान में वायु नहीं हो, वहाँ भी यह जीवित रह सकता है। वह न जल से गलता, न आग से जलता, न वायु से सूखता। बुढ़ापा और मौत उसका स्पर्श नहीं कर सकती।
आकाश की धारणा को करने वाले साधक के शरीर के भौहों बीच से मूर्धा पर्यंत आकाश मंडल है। समुद्र के शुद्ध-निर्मल जल के समान इसका वर्ण है। इसका बीज है”। इसके अधिष्ठात्री देवता हैं- आकाश स्वरूप भगवान सदाशिव। शुद्ध-स्फटिक के समान चेत-वर्ण है, जटा पर चंद्रमा हैं, पांच मुख, दस हाथ और तीन आँखें हैं। हाथों में अपने अस्त्र-शस्त्र लिये हुए, दिव्य आभूषणों से आभूषित, वे समस्त कारणों के कारण, पार्वती के द्वारा आलिंगित, भगवान सदाशिव प्रसन्न होकर वरदान दे रहे है। प्राणों को स्थिर करके पाँच घटिका पर्यन्त धारणा करे। इसका अभ्यास करने से ऐसा अनुभव होता है कि मैं आकाश हूँ। मेरा स्वरूप अनन्त है, देश, काल मुझमें कल्पित हैं। में अनन्त हूँ, इसलिये मेरा कोई अंश नहीं हो सकता। मेरी सम्पूर्ण विशेषताएँ मनके द्वारा आरोपित हैं। जन ही मुझमें हृदयाकाश और बाह्याकाश की कल्पना करता है। मैं घन हूँ, एकरस हूँ। न मेरे भीतर कुछ है और न तो बाहर। मैं सन्मात्र हूँ। इस आकाश-धारा के सिरः होने पर मोक्ष का द्वार खुल जाता है, सारी सृष्टि मनोमय हो जाती है। सृष्टि और प्रलय का कोई अस्तित्व अथवा महत्व नहीं रह जाता, मृत्यु के वाच्यार्थ का अभाव हो जाने से केवल उसका लक्ष्यार्थ शेष रहता है, जो अपना स्वरूप है।
पञ्चभूतों के बीज मंत्र का शरीर से तादात्म्य की अवधारणाओं का यहां उल्लेख है जिसमें अंगुलियों का विषय विस्तार से दिया जाना संभव न होने से प्राप्त परिणामों की चर्चा यौगिक पद्धति के परम पूज्य आचार्यों संहिताओं के सार का ही उल्लेख कर सका हूँ। योगवासिष्ठ अंतर्गत निर्वाण-प्रकरण के उत्तरार्द्ध में अट्ठासी वें सर्ग से बानबे सर्ग तक में इसका सरल उल्लेख हुआ है। साधकों को वहां उसका अनुपालन करना चाहिये। इस धारणा से यह अनुभूति तो बहुत ही शीघ्र होने लगती है कि यह स्थूल प्रपञ्च मनोमय है। आगे चलकर मन की चिन्मयता का अनुभव होता है और यही जड़ स्फूर्ति और जडत्व वासना से शून्य अन्तःकरण शुद्धि है। जब इस शुद्ध अंतःकरण में तत्व को स्वीकार करने की योग्यता आ जाती है तब उस विशुद्ध एकरस तत्व का बोध होता है। यह बोध ही समस्त साधनों का चरम और परम फल है।