विचार
न हिंदुत्व न दल और न नेता ,जीती तो केवल लाड़ली बहना
(डॉ.मुकेश “कबीर”-विनायक फीचर्स)
महाराष्ट्र और झारखंड के रिज़ल्ट और इसके पहले हरियाणा के रिजल्ट से यह बात साफ हो गई कि अब देश में मुफ्त की योजनाएं ही चुनाव का आधार बन चुकी हैं । फिर चाहे मुफ्त बिजली पानी हो या फिर लाडली बहना जैसी योजनाओं द्वारा पैसा बांटना हो,लोग अब इसी के आधार पर वोट देते हैं। महाराष्ट्र के बारे में कहा यह जा रहा है कि हिंदुत्व की जीत हुई लेकिन झारखंड या अन्य राज्यों के परिणाम देखें तो हिंदुत्व कहीं दिखाई नहीं दिया,बल्कि जहां जिस जाति की संख्या ज्यादा थी या जिसकी सरकार थी उनके कैंडिडेट ही जीते। बंगाल में पूरी छह सीट ममता की पार्टी जीती तो वायनाड में प्रियंका को बड़ी जीत मिली,कुल मिलाकर राज्य सरकार का प्रभाव दिखाई दिया।
वैसे महाराष्ट्र की बात करें तो कहा जा रहा है कि वहां हिंदुत्व की सुनामी थी लेकिन यदि वहां हिंदुत्व होता तो लाडली बहना योजना शुरू नहीं करना पड़ती। महाराष्ट्र की सरकार और स्थानीय नेता अच्छे से जानते हैं कि महाराष्ट्र में हिंदुत्व कभी चुनाव जिताऊ मुद्दा नहीं रहा,यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ के”बटेंगे तो कटेंगे” का सबसे पहले विरोध महायुति के नेताओं ने ही किया। अजीत पंवार और पंकजा मुंडे दोनों ने इस नारे का विरोध किया। दोनों का कहना था कि महाराष्ट्र में यह नारा व्यर्थ है । शिंदे भी पहले ही समझ चुके थे इसीलिए उन्होंने लाडली बहना जैसी लुभावनी योजना शुरू की और सिर्फ शुरू ही नहीं की बल्कि पांच महीने का एडवांस भी दे दिया,हर घर में साढ़े सात हजार मुफ्त में आए तो महिलाओं को महायुति की सरकार भाने लगी वरना लाडली बहना से पहले जितने भी सर्वे आए थे उनमें महायुति की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं थी । यदि स्थिति अच्छी होती तो कम से कम महाराष्ट्र में तो लाडली योजना लांच नहीं की जाती लेकिन यह योजना शुरू की गई और एक महीने बाद ही फिजा बदल गई । खासकर जो लेबर क्लास की महिलाएं हैं,जो घरों में काम करने वाली मौशीयां हैं उनमें जबरजस्त उत्साह देखा गया और फिर बीजेपी यह नरेटिव सेट करने में भी सफल रही की यदि महायुति की सरकार चली गई तो आघाड़ी इस योजना को बंद कर देगी,जबकि आघाड़ी ने इस योजना का पैसा डबल करने का वादा किया था । यहां महिलाओं का भरोसा महायुति के साथ रहा । बहरहाल हिंदुत्व का नारा यहां नहीं चला,यदि हिंदुत्व का नारा चलता तो उद्धव ठाकरे से ज्यादा सीटें राज ठाकरे की आना चाहिए थी क्योंकि राज ठाकरे बीजेपी के साथ थे और उनके भाषणों में भी हिंदुत्व और राष्ट्र के मुद्दे ज्यादा थे साथ ही वे मुस्लिमों पर कड़े शाब्दिक प्रहार भी कर रहे थे,बिल्कुल बाला साहेब की ही तरह लेकिन उनके सवा सौ उम्मीदवारों में से एक भी नहीं जीता । उनके खुद के बेटे भी नहीं जीत सके। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि राज ठाकरे लगातार लाडली बहना योजना का विरोध कर रहे थे । शायद इसीलिए उनकी सभा में आने वाली भीड़ वोट में तब्दील नहीं हो सकी। हालांकि राज ठाकरे की हार पर अभी मीडिया में चर्चा ज्यादा नहीं है बल्कि सारे देश में चर्चा सिर्फ उद्धव की हार ही हो रही है। खासकर हिंदूवादी पार्टियों के समर्थक उद्धव की हार का कारण बीजेपी का साथ छोड़ना ही बता रहे हैं। वैसे यह भी पूरी तरह सच नहीं है क्योंकि उद्धव की इमेज महाराष्ट्र में आज भी हिंदूवादी नेता की है। उनके बारे में नरेटिव सेट किया जा रहा था कि उन्होंने अपनी हिंदू वादी विचारधारा छोड़ दी है। लोकसभा में वक्फ बिल के मुद्दे पर बॉयकॉट करने से ही उद्धव के मुस्लिम वोटर्स नाराज हो गए थे और मातोश्री के सामने धरना प्रदर्शन भी करने लगे।मातोश्री (बाल ठाकरे का घर) के सामने इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम्स पहली बार देखे गए ,खैर उद्धव को बॉयकॉट का नुकसान हुआ वरना मुस्लिम वोट उनको मिलते तो कुछ सीटें ज्यादा बढ़ जाती । यह सॉफ्ट हिंदुत्व ही उद्धव को भारी पड़ा। महाराष्ट्र के बारे में पूरे देश में चर्चा हो रही है और सोशल मीडिया ने तो इसको हिंदुत्व की जीत मान लिया है लेकिन झारखंड में हिंदुत्व क्यों नहीं चला जबकि वहां असम के मुख्यमंती हेमंत विश्वा शर्मा और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने खुलकर हिंदुत्व की बात की थी।शर्मा तो मिशनरी और मदरसों के खिलाफ खूब बोले थे और हिंदुओं को एकजुट होकर वोट करने की अपील की थी, लेकिन वहां भी हेमंत सोरेन की मईयां सम्मान योजना ने शायद सोरेन को बचा लिया । सोरेन ने लाड़ली बहना की ही तरह मईयां सम्मान योजना झारखंड में पहले ही शुरू कर दी थी। महिलाओं को लुभाने वाली योजनाएं बीजेपी का ट्रंप कार्ड रही है लेकिन यह कार्ड सोरेन पहले ही चल चुके तो बीजेपी के पास कुछ रहा नहीं लुभाने के लिए वरना हरियाणा में भी बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में लाडो लक्ष्मी योजना के तहत 2100 रुपए महिलाओं को देने का वादा और प्रचार किया था इसलिए आखिरी के तीन महीने में बीजेपी का माहौल तेजी से बन गया जबकि पहले हरियाणा में भी स्थिति अच्छी नहीं बताई जा रही थी।लगभग यही हाल मध्यप्रदेश का था लेकिन मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव से ठीक पहले लाडली बहना योजना शुरू की तो बीजेपी की बंपर वापसी हुई और नतीजे बिल्कुल वैसे ही एकतरफा निकले जैसे आज महाराष्ट्र में निकले हैं। बहरहाल हार जीत तो चुनाव का एक हिस्सा है और उसके बाद समीक्षा भी एक परंपरा है । जिसमें सब अपनी अपनी भड़ास निकालते हैं और अलग अलग कारण गिनाए जाते हैं लेकिन एक बात पक्की है कि जीत हार के कारण जो भी हों लेकिन यह मुफ्त की योजनाएं अब हमारे चुनाव का हिस्सा बन चुकी हैं । यह देशहित में तो नहीं कही जा सकतीं लेकिन राजनीतिक दलों के लिए सौ फीसदी फायदे का सौदा है। इसलिए सारी पार्टियां आजकल इसी फार्मूले पर काम कर रही हैं। यह बात अलग है कि इसी मुद्दे पर वो एक दूसरे की आलोचना भी करती हैं । जब केजरीवाल दिल्ली में मुफ्त की योजनाएं लाए तो बीजेपी ने काफी आलोचना की लेकिन अब बीजेपी ने भी ऐसी ही कई योजनाएं शुरू कर दी हैं। उनको भी समझ आ गया है कि जनता को क्या चाहिए इसलिए बीजेपी ने पहले मध्यप्रदेश फिर हरियाणा और अब महाराष्ट्र लाड़ली बहना के सहारे जीता और सोरेन ने लाड़ली बहना के भरोसे झारखंड में सत्ता में वापसी की। अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इतना पैसा लाएंगे कहां से ? महाराष्ट्र में करोड़ों रुपए दिए गए इनकी रिकवरी कैसे होगी,क्योंकि जिन राज्यों में इस तरह की योजनाएं चल रही हैं वहां की सरकारें परेशान हैं। पैसा देने के लिए पैसा होना भी तो चाहिए और आखिर में पैसा जनता से ही वसूला जाता है,लाड़ली बहना के लिए लाड़ले भाईयों की जेब खाली की जाती है । मध्यप्रदेश में बीस साल पहले ही जनता इसका दुष्परिणाम भुगत चुकी है,जब दिग्विजय सिंह ने पहले तो बिजली मुफ्त की थी लेकिन बाद में बिजली के बिल इतने महंगे कर दिए कि बिजली के कारण ही दिग्विजय की राजनीति फ्यूज हो गई और फिर कभी नहीं चमके। अब ऐसी योजनाओं का बंद होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है क्योंकि अब चुनाव जीतने का ट्रंप कार्ड ऐसी योजनाएं ही हैं। वर्तमान चुनाव परिणामों से तो अब ऐसा लगता है कि जिस स्टेट में जिसकी सरकार है वही बार बार रिपीट होगी क्योंकि मुफ्त की योजनाओं की चाबी तो सत्ताधारी दल के पास ही होती है। फिर चाहे वह दिल्ली में आम आदमी हो या महाराष्ट्र में खास आदमी ।