मंदी की भविष्यवाणी: क्या हम आने वाले आर्थिक संकट का सामना करने के लिए तैयार हैं?
— संजय अग्रवाला, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल
विश्व अर्थव्यवस्था की गहराइयों में छिपे हुए जटिल तंतुओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक चक्र समय-समय पर पुनरावृत्त होते हैं। आज जब हम वैश्विक स्तर पर मंदी की आशंका के बीच खड़े हैं सवाल यह उठता है कि क्या हम एक संभावित आर्थिक संकट का सामना करने के लिए तैयार हैं। इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है क्योंकि विभिन्न कारक आर्थिक प्रणाली को प्रभावित करते हैं। मंदी का आना जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन हर बार इसका प्रभाव अलग-अलग होता है और इससे निपटने के उपाय भी भिन्न होते हैं।
अगर हम आर्थिक मंदी के पीछे के कारणों को देखें तो यह समझ आता है कि यह न केवल मांग और आपूर्ति में असंतुलन का परिणाम होता है बल्कि कई बार यह बड़े पैमाने पर वित्तीय नीतियों, ब्याज दरों, वैश्विक व्यापार तनाव, राजनीतिक अनिश्चितताओं और प्राकृतिक आपदाओं से भी प्रभावित होता है। आज हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैं जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था कई चुनौतियों का सामना कर रही है जिनमें प्रमुख रूप से व्यापार में कमी, आपूर्ति श्रृंखलाओं में बाधा और ऊर्जा संकट जैसी समस्याएं शामिल हैं। इन समस्याओं के बीच कई देश पहले से ही आर्थिक विकास की गति धीमी होते देख रहे हैं। इसलिए यह अंदेशा लगाना मुश्किल नहीं है कि हम एक गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
हालांकि यह जानना जरूरी है कि पिछले कुछ दशकों में दुनिया की आर्थिक प्रणालियाँ पहले से कहीं अधिक जटिल और परस्पर जुड़ी हुई हैं। वैश्वीकरण के युग में कोई भी देश पूरी तरह से अन्य देशों से स्वतंत्र रूप से आर्थिक रूप से नहीं चल सकता है। एक देश में मंदी के प्रभाव का अनुभव दुनिया के अन्य हिस्सों में भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, जब 2008 में संयुक्त राज्य अमेरिका में वित्तीय संकट उत्पन्न हुआ तो इसका असर पूरे विश्व पर पड़ा। इस संकट ने दिखाया कि जब वित्तीय संस्थाएं अस्थिर होती हैं तो उनका प्रभाव किसी एक देश तक सीमित नहीं रहता। वैश्विक बैंकों, वित्तीय संस्थानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच के आर्थिक संबंध अत्यंत जटिल होते हैं और जब इनमें से कोई एक तंत्र ढहता है तो इसका परिणाम अन्य देशों पर भी पड़ता है।
आज की परिस्थिति में अगर हम देखें तो कई विकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं दबाव में हैं। यूरोप ऊर्जा संकट का सामना कर रहा है जो रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण और भी जटिल हो गया है। इस संकट का परिणाम यूरोपीय देशों में उत्पादन की लागत बढ़ने और उपभोक्ताओं पर वित्तीय बोझ बढ़ने के रूप में देखा जा रहा है। दूसरी ओर संयुक्त राज्य अमेरिका में मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर पहुंच चुकी है जिससे वहां की आर्थिक नीतियों पर दबाव बना हुआ है। फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में वृद्धि की है ताकि मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जा सके लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि क्रेडिट सस्ता नहीं रहा और निवेश धीमा हो गया है। ऐसे समय में यह कहना आसान है कि हम एक आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
हालांकि यह सवाल अभी भी बना हुआ है कि क्या दुनिया आने वाले आर्थिक संकट का सामना करने के लिए तैयार है। इस संदर्भ में हमें यह समझना होगा कि सरकारें और केंद्रीय बैंक आर्थिक संकट से निपटने के लिए कई प्रकार की नीतियां अपनाते हैं। वित्तीय प्रोत्साहन पैकेज, ब्याज दरों में कटौती और विभिन्न सुधारात्मक कदम उठाकर संकट से निपटने के प्रयास किए जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये कदम पर्याप्त होते हैं? 2008 के वित्तीय संकट के बाद जो कदम उठाए गए थे वे बेशक कुछ समय के लिए असरकारक साबित हुए लेकिन क्या वे आज की स्थिति में कारगर होंगे?
यहां यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि आर्थिक संकटों का प्रभाव केवल अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं होता। इसका प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर पड़ता है। नौकरी जाने का डर, वेतन में कटौती, बढ़ती महंगाई और खर्चों में कटौती का असर आम आदमी की जीवनशैली पर होता है। खासकर मध्यम और निम्न वर्ग के लिए ऐसे संकट भारी होते हैं। इससे न केवल आर्थिक तनाव बढ़ता है बल्कि सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं। इसलिए आर्थिक संकट से निपटने की तैयारियों में केवल आर्थिक उपाय ही नहीं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा उपायों को भी शामिल करना आवश्यक है।
आज कई देशों ने सामाजिक सुरक्षा उपायों पर ध्यान केंद्रित किया है जिससे लोगों को मंदी के दौर में राहत मिल सके। इनमें बेरोजगारी भत्ता, स्वास्थ्य सेवाएं और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए सहायता कार्यक्रम शामिल हैं। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? यदि आर्थिक मंदी गहरी होती है तो इन योजनाओं पर भी दबाव बढ़ेगा और उन्हें चलाना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में सरकारों को दीर्घकालिक योजनाओं और उपायों की आवश्यकता होगी जो केवल संकट के समय काम न करें बल्कि भविष्य में भी उनकी क्षमता को बनाए रखें।
मंदी का सबसे बड़ा प्रभाव उत्पादन पर पड़ता है। उत्पादन में गिरावट से व्यवसायों पर असर पड़ता है और इससे निवेश कम होता है। यह स्थिति बेरोजगारी को बढ़ावा देती है और उपभोक्ता मांग घट जाती है। ऐसे में सरकारों को ध्यान रखना होगा कि किस प्रकार से वे व्यवसायों को प्रोत्साहित कर सकते हैं। करों में कटौती, सस्ते कर्जों की उपलब्धता और नए उद्योगों के लिए प्रोत्साहन देने जैसे उपाय किए जा सकते हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मंदी के दौर में सरकारों को निवेश पर ध्यान देना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था की गति बनी रहे।
इसके साथ ही एक बड़ा सवाल यह है कि क्या हम वैश्विक स्तर पर आर्थिक सहयोग को बढ़ा सकते हैं? पिछले कुछ वर्षों में व्यापार युद्ध, संरक्षणवाद और अंतर्राष्ट्रीय तनाव ने वैश्विक व्यापार को कमजोर किया है। ऐसे में आर्थिक संकट का समाधान वैश्विक सहयोग से ही निकाला जा सकता है। विभिन्न देशों के बीच व्यापार और आर्थिक नीतियों में सामंजस्य स्थापित करने से संकट को टाला जा सकता है।
इसके अलावा आज का समय तकनीकी विकास का है। प्रौद्योगिकी में हो रहे परिवर्तन अर्थव्यवस्था को एक नया स्वरूप दे रहे हैं। डिजिटल इकोनॉमी, ऑटोमेशन और ई-कॉमर्स जैसे क्षेत्रों में विकास ने व्यवसायों और रोजगार के नए अवसर खोले हैं। यदि इस दिशा में ध्यान दिया जाए तो मंदी के समय भी यह क्षेत्र नई संभावनाएं प्रस्तुत कर सकते हैं। सरकारों और कंपनियों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि तकनीकी विकास के लाभ सभी वर्गों तक पहुंचे और इसका उपयोग अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए किया जाए।
अंत में, मंदी के प्रभाव से निपटने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। नीतियों में संतुलन और दीर्घकालिक सोच मंदी के प्रभावों को कम कर सकती है। आर्थिक मंदी एक चुनौती जरूर है लेकिन इससे निपटने के उपाय भी हमारे पास हैं। इस दिशा में सरकारों, केंद्रीय बैंकों, व्यवसायों और समाज के सभी वर्गों को मिलकर काम करना होगा ताकि एक स्थिर और समृद्ध भविष्य की ओर कदम बढ़ाए जा सकें।