संत शिरोमणि रामजी बाबा का अवतरण दिवस आज-सदियो से लगता है मेला
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आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
नर्मदानगरी होशंगाबाद में 400 सालों से संत शिरोमणि रामजीबाबा के नाम से उनकी समाधि पर पूजा-अर्चना कर उनका जन्मदिवस माघसुदी पूर्णिमा को मनाकर एक विशाल मेले का भव्य आयोजन होता आ रहा है उसी क्रम में आज हजारों भक्तों की मौजदगी में आज समाधि स्थल पर दर्शन कर प्रसादी चढ़ाई, इस अवसर पर विशाल भंडारा आयोजित हुआ जिसमे 10 हजार से अधिक भक्तो ने प्रसाद ग्रहण किया। इस अवसर पर 15 दिवसीय मेले की शुरुआत एक दिन पूर्व स्थानीय विधायक डॉ सीटाशरण शर्मा ने की जिसमें 5 सौ से अधिक दुकाने एवं स्टाल सहित काफी तादात में झूले ओर मनोरंजन का आनंद लिए जाने की शुरुआत हुई। कहा जाता है की नर्मदापुरम की ही तरह महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मोर्शी तहसील मुख्यालय पर उनका एक नया परिचय विदेही संत समर्थ श्रीरामदास जीबाबा के नाम से प्राप्त होता है जहॉ उनका विशाल मंदिर बना है और वहॉ संत शिरोमणि रामजी बाबा के द्वारा जीवित समाधि लिये जाने से मोर्शी एक तीर्थ के रूप में विख्यात है।
रामजी बाबा या रामदास जी बाबा, भक्त कुछ भी नाम दे, किन्तु भक्तों के बाबा एक है, जिनके नाम,जीवनचरित्र को लेकर मान्यताओं में भिन्नता है। समाधि एक होनी चाहिये लेकिन रामजीबाबा के बाबत होशंगाबाद नगर में दो स्थानों पर तथा तीसरी बान्द्राभान मार्ग पर घानाबड़ तहसील में उनकी समाधि है और सभी जगह उनके भक्त पूरी श्रद्धा से उन्हें पूजते है। प्रश्न उठता है कि वास्तविक रूप से संत रामजी बाबा ने कहॉ-किस स्थान पर समाधि ली थी, होशंगाबाद नगर में उनकी समाधि की तिथि-वर्ष आदि का रिकार्ड भीं उपलब्ध नहीं है। संत शिरोमणि रामजी बाबा और यही स्थिति अमरावती जिले की मोर्शी तहसील मुख्यालय पर बने रामजीबाबा मंदिर की है जहॉ उनके जीवित समाधि की बात तो स्वीकारी जाती है परन्तु तमाम प्रयासों के बाद भी उनकी समाधि के बावत निष्चित मान्य तिथि-साल आदि की जानकारी नहीं हो सकी। लेकिन होशंगाबाद समाधिस्थल के मंहत सुन्दरदास जी व उनके परिजनों द्वारा मोर्षी मंदिर में समाधिस्थ संत रामजी बाबा के चित्र को स्वीकारोक्ति मिलने से यह बात प्रमाणित कहीं जा सकती है कि अमरावती मोर्शी के विदेही संत समर्थ श्री रामजीबाबा एवं संत शिरोमणि रामजीबाबा दो व्यक्ति नहीं एक ही है, और उनकी अलग-अलग समाधि को उनकी लीलाओं से जोड़कर होशंगाबाद और मोर्शी में सेवा में जुटे सेवादारों द्वारा स्वीकारोक्ति दे दी गयी है। रामजीबाबा की वास्तविक समाधि कहॉ है इसे लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है, कोई ग्राम घानाबड़ में होना बताता है तो कोई जुमेराती में मानता है तो कोई वर्तमान समाधि को ही महत्व देकर पूजा-पाठ करता है, जबकि उनकी जीवित समाधि स्थल के रूप में अमरावती के मोर्शी मंदिर को सभी की ओर से स्वीकारा है।
एक सवाल अनुत्तरित है कि विदेही संत समर्थ श्रीरामजी बाबा को मोर्शी के उनके अनुयायी या भक्त उनके जन्म को लेकर मानते है कि उनका जन्म ग्राम बानाबाकोड़ा, तहसील-सौंसर, जिला-छिन्दवाड़ा में मराठी पांचाग के अनुसार मार्गशीष कृष्ण षष्ठी को सन् 1785 को हुआ वहीं होशंगाबाद में वाणी भाष्य में प्रकाशित अनुमानित गणना के आधार पर संतशिरोमणि रामजी बाबा का जन्म संवत 1601में पश्चिम निमाड़ खण्डवा के ग्राम रिखी घूघरी में कश्यप ऋषि की संतान विश्नोई गोत्र में होना बताया गया। जहॉ जन्म को लेकर दोनों ही तिथियॉ मेल नहीं खाती है वहीं जीवित समाधि में प्राण त्यागने की तिथि होशंगाबाद संत परिवार के पास नहीं है वहीं मोर्शी में विदेही संत श्रीरामजीबाबा की गादी के पॉचवी पीढ़ी के स्वयं को वंशज बताने वाले राजेन्द्र नत्थुजी नखातेने भी इस सम्बन्ध में इतना ही बताया कि 18 नवम्बर 2020 को 233 वा जन्मोत्सव मनाया है, इसके पूर्व जन्म को लेकर वे भी सही जानकारी देने में असमर्थ रहे।
मोर्षी स्थित रामदासजी बाबा का जीवित समाधि मंदिर-
नर्मदापुरम समाधि के महन्त परमेश्वरदास जी उर्फ श्याम भैया के द्वारा भी रामजीबाबा के बाबत प्रमाणित जानकारी नहीं दी जा सकी थी तथा इस बात को स्वीकार किया कि मोर्शी के भक्तों ने महन्त सुन्दरदास को जो एक फोटो दिया वह रामजीबाबा का ही है जिन्हें मोर्शी में विदेही समर्थ श्री रामजी बाबा के रूप में पहचाना जाता है, होशंगाबाद में बाबा का यह फोटो तीस साल के लगभग पहली बार आया, इसलिये मोर्शी में जीवित समाधि के बाद बने मंदिर और होशंगाबाद में उनकी समाधि एक ही संत की स्वीकारी गयी। इसके अलावा श्रीरामजीबाबा भक्तों के आग्रह पर अनेक गॉवों में ठहरे जिससे वहॉ उन ग्रामों मे उनकी चरणपादुकाओं की पूजा शुरू हुई और वहॉ उनके समाधिनुमा मंदिर बनने से उनके समाधि लेने के स्थानों पर दावे प्रचलित है जिनमें रायसेन जिले, हरदा जिले के कुछ गॉव सहित होशंगाबाद जिले की डोलरिया तहसील के ग्राम बोरतलाई बैगनिया आदि में चरणपादुकाओं की पूजा पूर्णश्रद्धा एवं भक्तिभाव से जारी है तथा लोगों की मन की मुरादें पूरी होने व मन्नतों के लिये इन सभी स्थानों पर बच्चों-जवान-बूढे़ सभी का अन्न,गुड़,मिठाई आदि से तुलादान कर सामग्री पुजारी को देने का प्रचलन हैै।
रामजीबाबा समाधि पर तुलादान-
नर्मदापुरम में बाबा की गादी के वंशजों के अनुसार रामजीबाबा के गुरू रघोसंत थे जो राजगिर के शिष्य थे ओर इन्हें सिंगा जी महाराज की पीढ़ी में माना जाता है। संत शिरोमणि रामजीबाबा का समाधि स्थल होशंगाबाद में रेल्वे स्टेशन ओर बस स्टेण्ड के मध्य में पैदल सौ-डेढ़ सो कदमों दूर ह्रै। समाधि से पूर्व वे तवा नदी एवं नर्मदा मैया के संगम के निकट ग्राम घानाबढ़ जो वान्द्राभान मार्ग पर चार किलोमीटर दूर है वहॉ निवास करते थे। घानाबड़ में उनके दर्शनों के लिये भीड़ जुटने लगी तब अग्रवाल समाज के कुछ सेवकों ने रामजी बाबा से शहर में चलने का निवेदन किया और वे आ गये तब मंगलवारा जुमेराती स्थित अग्रवाल धर्मषाला में अपना डेरा डाला जहॉ उनकी स्मृति में समाधि बनी हुई है, कुछ समय निवास करने के बाद वे दक्षिण दिशा में आकर बस गये, कालान्तर में वहॉ पर रेल्वे स्टेशन एवं बसस्टेण्ड बन गया। होशंगाबाद में उनकी समाधि पर पिछले 300 सालों से अखण्ड ज्योति प्रज्जल्वित है और तभी से यहॉ डेढ़-दो सौ सालों से प्रतिवर्ष माघसुदी पूर्णिमा को मेला लगना शुरू हुआ जिसमें हजारों की सॅख्या में लोग बैलगाड़ी-घोड़ागाडी से आते थे जिससे अव्यवस्था हो जाती थी तब सन् 1965 में तत्कालीन कलेक्टर आर.एन.सिंह ने इस मेले को पॉच दिवसीय कर दिया और यह मेला बाबा की समाधि समिति द्वारा आयोजित किया जाता था किन्तु मेले से आमदनी कमाने की नीयत से वर्ष 1985 में नगरपालिका ने इस मेले को अपने हाथों में लेकर 10 दिनी कर दिया जो आज भी प्रचलित होकर नपा की मोटी आय का साधन बना और स्थानीय नेता अपने नाम से दर्जनों दुकानें लेकर चौगुने दामों में बेचकर,बिजली आदि का मनमाना बिल लेकर इस मेले को विकृत रूप दे चुके है।
संतरामजी बाबा घानाबड़ में रहते थे तब उनके पास ग्राम धरावास, धानाबड़, रायपुर और खेडी लून पॉच गॉवों की मालगुजारी थी लेकिन वे कुटिया में रहना पंसद कर तम्बाखू और गुड का धंधा करने लगे, लेकिन कभी दुकान पर नहीं बैठते और भगवत भजन में लीन रहते। कहा जाता है कि जो भी ग्राहक आता अपने हाथों से पैसा रखकर उतना सामान तौलकर ले जाता जितने दाम रखता। जो ग्राहक बेईमानी से बिना पैसे या कम पैसा रखकर ज्यादा गुड, तम्बाखू ले जाता तो उसके घर पहुचते ही उसको पास उतना ही सामान निकलता जितने दाम उसने रखे है।
रामजीबाबा के अनेक चमत्कारों से यहॉ के भक्त आत्मविभोर रहते है। कहते है जब वे घानाबड़ में थे तब नर्मदा में भीषण बाढ़ आयी उसमें सबकुल जलमग्न हो गया किन्तु बाबा ने कुटिया नहीं छोड़ी बाद में बाबा को बचाने के लिये कुछ लोग बड़ी नाव लेकर पहुॅचे तब उन्होंने देखा कि उनकी कुटिया के लेबल से दो फिट ज्यादा पानी चारों ओर हिलोर रहा था, सभी को लगा बाबा की कुटिया बह गयी होगी और कुछ नही बचा होगा, वे दुखी मन से बाबा की कुटिया की ओर विषाल नाव से बढ़े और बाबा को आवाज लगायी। वे कुटिया के पास पहुॅचकर यह देख अचंभित थे कि जितने स्थान पर कुटिया बनी थी नीचे होने के बाबजूद उसके चारों और पानी हिलौर मार रहा था पर कुटिया से कुछ फिट दूर ही पानी ठहर गया था, कुटिया के न डूबने को लोगों ने बड़ा चमत्कार मानते हुये लोग रामजीबाबा को अवतारी मानने लगे। जिसकी चर्चा चारो ंदिषाओं में फैल चुकी थी और बाबा के भक्तों का उनके प्रति गहरा लगाव देखते बनता था इसके पूर्व की एक घटना का जिक्र आता है कि- एक चमत्कार के अनुसार उन्हें परिवार के लोगों ने खेत में हल चलाने भेजा लेकिन जैसे ही उन्होंने हल चलाया वैसे ही चरचराहट की आवाज के साथ भूमि से रक्त का संचार फूट पड़ा, वे हल चलाना छोड़कर एक कौने में बैठ गये, तभी उनकी पत्नी उन्हें खाना खिलाने आयी और उन्हें एक जगह बैठा देखा तब कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि पृथ्वी में भी जीव है इसलिये ऐसा हुआ तब पत्नी और गॉववालों ने यह दृश्य देखा सभी अचंभित हुये,तभी से उन्होनें खेती करना बंद कर दिया।
एक समय 500 गुंसाई अपनी जमात के साथ बद्रीनाथ दर्शन को निकले और संतरामजीबाबा के यहॉ ठहर गये भजन कीर्तन के बाद उन्होंने बाबा से भोजन कराने का निवेदन किया इस पर बाबा के पास उस समय चार पेड़े और थोड़ा सा दही था। बाबा ने अपने चेलों को आवाज देकर चार बड़ी टोकरिया एवं दही रखने के लिये पात्र बुलवाये। बाबा ने उन चारों टोकरियों में एक एक पेड़ा तथा तथा दहेडियों के पात्र. में दो-दो चम्मज दही रखा और कहा साहब देवेगा और उन्हें सफेद वस्त्रों से ढॅक दिया। कुछ समय बाद चादर हटाई तो वे चारों टोकरियॉ पेड़ों-मिठाईयों से भरपूर तथा दहेडियों में दही था जिसे सभी गोसाईयों को खिलाया गया, सभी का पेट भर गया, लेकिन उन टोकरियों से मिठाईया एवं दहेडियों का दही खत्म नहीं हुआ इस चमत्कार से सभी गोंसाई बाबा को नमन कर अगले दिन फिर प्रसाद-भोजन ग्रहण कर बद्रीनाथ की ओर रवाना हुए।
एक अन्य चमत्कार के अनुसार रामजीदास महाराज के एक मित्र बुदनी के पहाड़ के शिखर पर कुटिया बनाकर रहते थे जिनका नाम मृगरनाथ बाबा है जिन्हें अपभं्रश में भृगनाथ भी कहा जाता है, उनसे मिलने रामजी बाबा नर्मदा के जल पर सहज ही पैदल चलकर जाते और मिलकर लौट आये, लोग बिना नाव या सहारे के उन्हें जल पर चलते देखकर उनकी भक्ति की पराकाष्ठा में उनके भजनों में डूब जाते।
संत शिरोमणि रामजी बाबा ने 19 साखी 26 भजन 2 आरति व 1 चतुर्दिश उपदेश लिखे जिसे वाणी भाष्य टीका के रूप में कन्देली के श्री चरणदास खत्री ने प्रस्तुत किया और परमेश्वर दास महन्त उर्फ श्याम भैया के संपादन में महन्त सुन्दरदास जी द्वारा प्रकाशित किया है। उनकी वाणी भाष्य में संग्रहित किये पदों में जहॉ जीव के परमात्मा से मिलन की सुन्दरतम व्याखायें प्राप्त होती है वही वे सरल मार्ग भी बताते है कि किस तरह परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है।
रामजीबाबा का दर्शन-चिंतन,मनन सामने आया जो उनकी निर्गुण, निराकार, ब्रम्ह की भक्ति का साकार स्वरूप देखने को मिलता है-
कोई न मिलो म्हारा देश को, जासे कहू मन की।
अनेक जन्म कूं भटकिया, कहॅू थिर न रहाई।।
त्रिवेनी तिरिया बुझी, जहॉ बैठा जाई।
सतगुरू ने कृपा करी, जिन्ने मोह ब्रम्ह लखाया।
चन्द्र सूर्य की गम नहीं, जहॉ दरशन पाया।।
अगम निम की गम करो, दुविधा देख बहाई।
बाहरढूढ़ों हरि नहीं मिले, घट में लौलाई।।
सुख सागर स्नान करो, काया निर्मल होय।
हंस परम हंसा मेलिया, जब आतम चीन्हा।।
गंगा जमुना सरस्वती, बहे संगम धार।।
कोई एक जुगता पाईयॉ,यह भूलों संसार।
उत्तर दिशा कूं उठ चलो, खोजों बारम्बार।
कई एक मुनि जहॉ पच मुए, काहू न पाया पार।।
अगम अगोचर पद है, लखों अपूरब वाणी।
जहॉ हरिदास समाइयो, काहू बिरले ने जानी।।
काम क्रोध को दूर करो, पियो प्रेम अघाई।
रामदास चरण आधार है, गुरू राखांं सरनाई।।
संत रामदास जी अनूठी बातें करते है जिसे समझ पाना ब्रम्हज्ञानियों का काम है, सांसारिक लोग बहुत ही कम उनकी बातों को आत्मसात कर पाते ह्रै। यही बात वे चेताते है कि मैं जिस देश का हॅू अर्थात परमात्मा में रमण करने वाला हॅू उसका जानने-समझने वाला कोई व्यक्ति उन्हें नहीं मिला। स्पष्ट है उनके समय कोई भी संत महात्मा नहीं था जो उनकी बात को समझ सकता था। तभी वे अपने मन की बात उससे नहीं कर सके, क्योंकि जो उनसे जुड़े थे वे कामी, क्रोधी और स्वार्थी थे। वे दुनियावालो को समझाते है कि यह जीव अनेक जन्मों मेंं भटकता है और उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती है। परमात्मा की कृपा का वर्णन करते वे कहते है कि यदि सर्वात्मा दयालु हो जाये तो योगबल से त्रिवेणी में ध्यान लगते ही अमृतरूपी जल पान का स्वाद जन्मों-जन्मों की प्यास बुझाकर परमात्मा से मिला देता है फिर आवागमन से वह मुक्त हो जाता है। अपने गुरू के प्रति उन्होंने कृतज्ञता व्यक्त करते हुये संतों को बताया कि सतगुरू की कृपा से उन्होंने ब्रम्ह को पाया है जहॉ चन्द्र-सूर्य का आवागमन नहीं है सिर्फ सच्चिदानंद ही सभी में समाया है। वह पाने के बाद प्रत्येक सॉस में ओम परमात्मा का स्मरण ही शेष रहता है शेष विकार अन्तकरण से बाहर चले जाते है। परमात्मा ंअंदर ही है उसे जगत में तलाशने से नहीं मिलेगा, जिन्होंने अपनी आत्मा में गोता लगाया उसके सामने वह प्रगट हो जाता है। उसके प्रगट हो जाने के बाद परमब्रम्ह नित्य शुद्ध पवित्र और सुख देने वाले सुख के सागर में स्नान करता है और शरीर निर्मल हो जाता है और आत्मा परमात्मा से मिल जाता है।
वे गंगा जमुना सरस्वती का जिक्र करते है तो इसका तात्पर्य वे पवित्र नदिया नहीं बल्कि वे अपने शरीर के बाबत ही इसकी उपमा देते है कि इडा नाड़ी नासिका के बॉये अंग की ओर बहती है उसे गंगा तथा पिंगला नाड़ी दाहिन आर प्रवाह रखती है वह यमुना एवं दोनों नाड़ियों के बीच त्रिकुटी में त्रिवेणी संगम है जिसका ध्यान बिरले ही करते है। वे रास्ता दिखाते है कि चन्द्रमार्ग से प्राणायाम करने पर परमात्मा का ध्यान से उसकी तलाश में बढ़ने वाले परन्तु उसे किसी ने प्राप्त नहीं किया है क्योंक वह अगम अगोचर और इन्द्रिय से परे है बाबजूद जो उसके भक्त है वे उसमें लीन रहते है और बिरले ही जान पाते है। रामदास जी कहते है कि जिन्होंने अपनी आत्मा में सभी प्रकार के विकारों को त्याग दिया उसके लिये उसे प्राप्त हुई परमशांति आनंदमय है और शांतिपान के लिये गुरू के चरणकमल ही आधार है इसलिये सदैव गुरू की शरण में रहना चाहिये।
तुम निरखो अपरम्पार,मनुआ सहज करों व्यौपारा रे।
त्रिकुटी संगम भॅवर गुफा मेंं, जहॉ रहे करतारा रे।।
कोट भनु जाकी शोभा बरनी, जोई बनो निज धामा रे।
छई दर्शन सहज में पाये, रहे जगत में न्यारा रे।।
चार सुन्न में घर है हमारा, जहॉ पहुॅचे कोई बिरला रे।
कहे रामदास जा पद करो नबेरा, सोई गुरू हमारा रे।
हे संतजनों, यह परमात्मा अपरम्पार है। उसका भेद कोई नहीं जान सकता है उसे अपनी आत्मा में देखों और सांसारिक कामों को सहज स्वभाव में रखो ताकि सहज स्वभाव वाले व्यक्ति को सांसारिक कामों को करते हुये भी इन विषयविकारों में लिप्त नहीं रहना पड़े अर्थात वह निष्काम भावना में रह सके। मस्तिष्क को त्रिकुटा कहा है जहॉ इस जगत का कर्ता, जगत को उत्पन्न करने वाला ब्रम्हस्वरूप निवास करता है। परमात्मा हर जीव में है, हर जीव उसका भवन है जिसकी शोभा करोड़ों सूर्यो के समान है। जो सांसारिक कामनाओं को त्याग देते है वे निर्विषय हो जाते है जिन्हें निष्काम कहा गया है। वे निष्कामी ही प्राणवायु को अपने वशीभूत कर सहज ही मस्तिष्क में रहने वाले 6 चक्रों के देवताओं और उनकी शक्ति का दर्शन कर सातवे चक्र जिसे ब्रम्हकमल कहा है के परम सुख धाम में लीन हो जाते है और उन्हें परमात्मा सहज ही साक्षात स्वरूप में प्राप्त हो जाता है जो योगियों द्वारा निश्चय किया गया हे। जिन्हें चार शून्य कहा गया है वही परमात्मा का घर है जहॉ विरले संत पहुचते है जो पहुॅचते है उन्हें तुरियावस्था अर्थात ब्रम्ह की प्राप्ति हो जाती है।रामदास जी पूरे पद में उन्हें बखान कर संतों को सम्बोधित कर कर कहते है कि वही परमात्मा तुम्हारा गुरू है जो पूरे जगत में व्याप्त है। यहॉ रामदास जी ने अगम अगोचर गुरू की बात कर भक्ति की परकाष्ठा का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
राम कोई नहीं हीरा को परखैया।
माया मोह में दुनिया रही लुभाय,जासे लख चौरासी फेरा खाय,
बारह आवै सोलह जाये,बारह सोलह उलट समाये।
पहरी टोपी भभूत लई चढ़ाई,पाखण्ड देखकर साहिब रहो लुकाय।
चार दिशा एकै घर लावै, सतुगुरू हीरा दियो बताय।।
मोती लाल अपरम्पार, हीरा लखे सौ भयो निहाल।
चार स्वरूप से रहो चित लाय,जनम जनम के पातक जाय।
सब दासन का हॅू मैं दास,शब्द विवेकी साहिब पास।
रघोसंत की कृपा से कहे रामदास, कोटि मद्धे हीरो दिया परखाय।
रामदासजी कहते है कि हीरा की परख करने वाले परखैया मुश्किल से मिलता है अर्थात परमात्मा को जानने वाला संसार में अलग ही होता है। संसार विषयभोग, मोहजाल में रमा हुआ है जिसमें व्यक्ति अपने स्वरूप को भूल चुका हे इसलिये इन जन्ममरण के चक्कर में योनियों में भ्रमण करता रहता हे अगर वह इनसे बचना चाहे तो उसे निष्काम भाव से परमात्मा की भक्ति करनी होगी। जो भक्ति नहीं करते है उन जीवों के प्राणांं को बारह-सोलह मात्राओं का उतार-चढ़ाव अर्थात कुम्भक प्राणायाम करना होता है। वे दुनियाभर के लोगों के भाव देखते है जिसमें उन्हेंं कोई सिर में टोपी पहने दिखता है तो कोई शरीर में भभूत लपेटे दिखता है जो अपनी मान बढ़ाई के लिये स्वरूप बदलकर साधु बन जाते है वे ऐसे लोगों को पाखण्डी कहकर आगाह करते हे कि इन्हें कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है। रामदास जी के अनुसार जो अपने मन को चारों तरफ से खींचकर परमेश्वर के चरणों में लगाये वही बताने वाला सदगुरू है जो हरिनाम रूपी हीरा के दर्शन कराता है। वह हीरा रूपी परमात्मा में मोतीरूप गुण को पहचान ग्रहण करते है वहीं सुख और परमानन्द पाते है। जो चौथा स्वरूप कहा गया हे वह तुरियावस्था का हे जहॉ ब्रम्ह पद को प्राप्त करते ही व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर के बंधन से मुक्त हो जाता हे। जीवात्मा के पहला स्वरूप जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर जो विश्वरूप है। दूसरा स्वप्नावस्था में लिंग शरीर अर्थात तेजस स्वरूप परमात्मा है। तीसरा सुषुप्ति अवस्था में सूक्ष्म शरीर जिसे प्राणरूप परमात्मा कहा है तथा चौथा तुरियावस्था अर्थात केवल परमात्मा ही जहॉ शेष रहता है। संत रामदास जी अपने को सभी संतों का दास कहते है, क्योंकि उन्होंने अनुभव से जान लिया था कि परमात्मा संतों के ही पास निवास करता है।
राम रतन धन पाया जासे ममता मैल बहाया।
आतम सोच निरन्तर साधो, उनमुनि जोग अपारा।।
भॅवर गुफा में अमीरस चूंबे, जहॉ बैरो राम राया।।
पॉचई सोध पचीसई बोधों, वे है काल जंजाला।
सहज सुन्न में सुरत समोई, कहौ करें जम राया।।
सॉची रहनी सॉची करनी,सॉच में सॉच मिलाया।
सॉचे साहिब के दर्शन पाये,आवागमन नसाया।।
निर्गुण स्वामी अगम अगोचर,दृष्टि काहू की न आया।
तन मन अर्प मिलो भाई साधो, अदेख ब्रम्ह लखाया।
धन वे साहिब धन वे सेवक,धन वे राम रमैया।
जिन्ने रामदास पै कृपा कीन्हीं, आवागमन से रहिया।।
निर्गुण भक्ति के अनुगामी रहे है रामदास जी जो कहते है कि इस जगत में केवल राम का नाम ही है जो सबसे अमूल्य धन है जिसे जो प्राप्त करता है उसे मोहरूपी बंधनों से मुक्ति मिल जाती है मानों उसने उसने अपने जीवन के समस्त विकारों को धो दिया है। आत्मा के शुद्धि से इसकी शुरूआत होती है क्योंकि शरीर इन्द्रियों के अधीन रहता है और आत्मा उन्मुक्ति योग जिसे साधु पुरूष समाधि भी कहते है को वरण करती है। भॅवरगुफा के रूप में उन्होंने संसार का उदाहरण देते हुये कहा कि जगतगुफा के द्वार पर अमृत की बरसात हो रही है उसे वही पाता है जो ध्यानिस्थ होकर बैठता है तब उसे पॉच तत्व पृथ्वी,वायु,जल,अग्नि और आकाश का बोध होता है जिसे पार करने के बाद उसे पच्चीस प्रकृतियों का बोध होता है अर्थात काल के जंजाल और वासनाओं से पाला पड़ता है किन्तु भक्ति ऐसा मार्ग है जिसे पालन कर परमात्मा को ध्यान करने वाले को यमराज भी मोझ में बाधक नहीं होता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि व मन, वचन, कर्म से सत्य को ग्रहण करे और आत्मा के अन्दर उस सत्य का आचरण कर परमात्मा को प्राप्त कर आवागगमन से मुक्त होवे। वास्तव में देखा जाये तो मनुष्य असुर, देत्य, राक्षस तथा पिशास आदि वाणी द्वारा कर्म द्वारा ऐसा काम कराते हे जिससे व्यक्ति दुख के सागर में डूब जाये किन्तु जो इससे मुक्त होते है वे लोक परलोक के आनन्द का मार्ग खुद तय करते हे। परब्रम्ह परमात्मा सम्पूर्ण जड़-चेतन, जगत का स्वामी और अगम व अगोचर अर्थात निर्गुण है जो योग द्वारा अनुभव किया जा सकता है। रामदास स्वामी यहॉ उद्धार का मार्ग बताने वाले गुरू के उपदेश का जिक्र करते हुये उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुये उन्हें धन्यवाद देते है और उनका आभार मानते है जो गुरू के उपदेश का पालन कर परमात्मा का सत्य, ज्ञान एवं हृदय में धारण किये हुये है। ऐसे ही संतों को नमन करते हुये रामदास स्वामी सच्चिदानंद के दर्शन की आंकठा में अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुये हरिभक्तों का बखान कर अपने आवागमन छूठने से जोड़ते है।
बिन पानी के सागर भरिया, तीरथ कई करोड़।
जहॅा साधु स्नान करें, सो आवागमन न होय।।
मोतियन की जहॉ बरसा बरसे, झूले सुखमन नार।
इक्कीस ब्रम्हाण से मेघला, देखे दृष्टि पसार।।
झिलमिल झिलमिल होय रहा, धरती आसमान बीच।
चार पदारथ परख के, रहो चरण समीप।।
पारिब्रम्ह के रूप कूं, सब देखों परमान।
रामदास को स्वामी रम रहो, ऐसो ब्रम्ह विचार।।
रामदासजी निर्णुण निराकार भक्ति परम्परा के उत्कृष्ठ संत है। वे यहॉ पर बड़ी भावपूर्ण एवं रहस्यमय बात उजागर करते है कि यह शरीर अपने आप में एक ब्रम्हाड है जिसमें न जाने कितने समुद्र और कितने तीर्थ है और चारों और साधु-संत स्नान कर जन्ममरण के बंधन से मुक्त हो रहे है। रामदास जी ने परमात्मा को बिन पानी का समुद्र बताते हुये कहा कि इसमें कई तीर्थो का महात्म है। इस शरीर के मेरूदण्ड के नीचे मूल कमल में जिधर सुखमना नाड़ है वहॉ अलौकिक प्रकाश है जिसका ध्यान करने से परमानंद रूपी मोतियांं की बरसात मिलेगी जो सदा से हो रही है लेकिन पाता वहीं है जो शरीर की इक्कीस ग्रन्थियॉ से पार पाता है ओर वही परमात्मा को देख पाता है। परमात्मा स्वयं प्रकाशवान है जो धरती और आकाश के भीतर अपनी आभा विखेर रहा है। शरीर में मूलाधार चक्र से लेकर जो सहस्त्र दल कमल चक्र में जगमगाता है वह चारांं पदार्थ अर्थात मोझ और परमात्मा को पाता है। रामदासजी इसी परमात्मा को जो निर्गुण है निराकार है और अव्यक्त है उसके स्वरूपों को दिव्यदृष्टि पाकर देखने को कहते है, उनका कहना है कि उनका परमात्मा सर्वत्र,सर्वव्यापी और रमने वाला अंतरयामी है जिसे सभी को समझना चाहिये।
संत शिरोमणि रामजीबाबा ने सभी को संदेश दिया है। वे निर्गुण भक्ति के चमत्कारिक संत के रूप में विख्यात थे और जिस प्रकार नर्मदापुर में उनकी महिमा को बखान कर उनके भक्तों का सैलाव होशंगाबाद में उमड़ता है ठीक वहीं स्थिति अमरावती की तहसील मोर्शी में होती है जहॉ बाबा के चमत्कारों से लाभान्वित हो भक्तों की अपार भीड़ दर्शनों और तुलादान के लिये उमड़ती है। जब बाबा यहॉ थे तब नर्मदाक्षैत्र एक जंगली क्षैत्र था और आबादी न के बराबर थी। मुश्किल से यहॉ 50-60 परिवार ही निवास करते थे। जब अग्रवालों ने उनकी कृपा का लाभ लेने के लिये उन्हें जुमेराती मंगलवारा लेकर आये तब वर्तमान स्थान पर जंगल था जहॉ आने में लोग डरते थे। कालान्तर में यहॉ से रेल्वे लाईन प्रस्तावित हुई और समाधि को तोड़ने की बात निकली लेकिन बाबा के चमत्कार के कारण उन्हें रेल्वेलाईन और स्टेशन के लिये उनका वर्तमान समाधि स्थल हटाने का विचार बदलना पड़ा और आज जहॉ स्टेशन है वहीं बनाया गया।
संत रामजी बाबा का नाम सर्वधर्म सदभाव के लिये विख्यात है और उनकी मुस्लिम फकीर ओलिया गोरीशाह से स्नेह रहा और दोनों का एक दूसरे के यहॉ आना जाना बतलाया गया। इसी प्रेम के कारण जब बाबा की समाधि का निर्माण किया जाने लगा तब गुम्बज पर मस्जिद का नमूना खुदवाकर लगाया गया और तभी से मुस्लिम यहॉ नमाज पढ़ते थे जो आत्मीयता और परमात्मा में भेद को मिटाकर एकता का संदेश प्रसारित करता है। सप्ताह में लगने वाले हाट-बाजारों में तब रामजीबाबा के पास संत आत्माराम बाबा, स्वामी ब्रम्हगिरि जी, सिंघा जी महाराज, स्वामी रघोसंत जी, गुरूसाहिब महाराज एवं देवामाई (देवादासजी) आया करते और उनक सत्संग लाभ व दर्शनों के लिये भी लोग जुट जाया करते थे। रामजीबाबा के पास जुड़ने वाली इन साधु-संतों की जमात में जो भी रहस्यमय चर्चायें होती थी वे मौन में एक दूसरे के समक्ष एक भी षब्द व्यक्त किये होती थी जिसे वे ही समझते और परमानन्द में लीन रहते और भक्त इसे देखकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते किन्तु उनकी वाणी न सुन पाने के सुख से वंचित रहते।
संत देवामाई(देवादास)की समाधि-
संत देवामाई महिला संत थी वह होशंगाबाद जिले की बनखेड़ी तहसील के ग्राम फतहपुर की थी वे नर्मदा परिक्रमा के दरम्यान रामजीबाबा के पास आकर ठहर गयी जहॉ से उन्हें ब्रम्ह की उपासना एवं आत्मा परमात्मा के सेतु के बीच आल्हाद नाद की परमानुभूति का अनुपम खजाना मिला। यह अनूॅठी अलौकिक संत देबाबाई रामजी बाबा से मिलने के बाद योग द्वारा महिला से पुरूष रूप में बन गयी और उनका नाम संत देवादास हो गया। किन्तु आज भी सदरबाजार होशंगाबाद में देवाबाई की समाधि है जिसमें सैकड़ों एकड़ जमीन एवं कोठारी मंदिर के सामने विशाल मंदिर व भूमि एवं उस पर संचालित दुकानों पर देवाबाई गादी पर काबिज परसाई परिवार देखरेख के नाम पर मौज कर रहा है और देवाबाई की समाधि पर सुबह-शाम की आरति आदि किसी भी तरह के पूर्व में होने वाले आयोजनों पर विराम लगा होने से शहरवासियों के लिये यह समाधि अंजान ही बनी हुई है।
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
श्रीजगन्नाथधाम काली मंदिर के पीछे ,ग्वालटोली
नर्मदापुरम मध्यप्रदेश