विचार

श्राद्धकर्म है पितरों के प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता की अभिव्यक्ति

आत्माराम यादव पीव

वरिष्ठ पत्रकार

मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता तभी भारतीय संस्कृति में मृत्यु को अनन्त जीवन श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में स्वीकारा है, इसलिए संस्कारों के क्रम में ‘जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है, जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है। जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने, इस हेतु कर्मकाण्ड में धर्मसूत्रों की व्याख्या में गुरु वशिष्ठ ने श्राद्धकर्म को पितरों के प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता की अभिव्यक्ति हेतु व्यवस्था दी है ताकि हम ओर आप दिवंगत अपने स्वजन माता- पिता, बाबा-परबाबा, दादी, परदादी, पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, नाना, परनाना, भाई, बुआ, मौसी, सास-ससुर एवं गुरु- गुरु पत्नी, शिष्य एवं मित्रगण की जीवात्मा के कल्याण की भावना से श्राद्धकर्म द्वारा तृप्त कर सके।
इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वालों को जिस इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्मों से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति अनुभव करता है। उनकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सानिध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं। श्रद्धा ही उनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध एवं तर्पण आवश्यक हैं। पितर वे हैं, जो पिछला शरीर त्याग चुके; किन्तु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके। इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं।

गीता के आठवे वें अध्याय में कहा भगवान कृष्ण ने ब्रम्ह ओर जीव का विवेचन करते हुये श्लोक पाँच में कहा है – अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम। य प्रयाति स मदभांव याति नास्त्र्यत संसश ॥ अर्थात है- “हे अर्जुन ! जो अन्त समय में जिन भावों का स्मरण करता हुआ देह छोड़ता है, उन्हीं भावों से अनुप्राणित होकर वैसा ही नया शरीर, नया व्यक्तित्व प्राप्त करता है। संसार एक समुद्र के समान है, जिसमें जलकणों की भाँति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है, तो व्यक्ति एक परमाणु । जीवित या मृत आत्मा इस विश्व में मौजूद है और अन्य समस्त आत्माओं से सम्बद्ध है। संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार, अत्याचार हो रहे हों, तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। जाडे और गर्मी के मौसम में हर एक वस्तु ठण्डी और गर्म हो जाती है। छोटा सा यज्ञ करने पर भी उसकी दिव्यगन्ध व भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुँचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शान्तिमयी स‌द्भावना की लहरें पहुँचाता हैं। यह सूक्ष्म भाव तरंगे तृप्तिकारक और आनन्ददायक होती हैं। स‌द्भावना की तरंगें जीवित-मृत सभी को तृप्त करती हैं, परन्तु अधिकांश भाग उन्हीं को पहुँचता है, जिनके लिये वह श्राद्ध विशेष प्रकार से किया गया है। मुक्त आत्माओं और पितरों के प्रति मनुष्यों को वैसा ही श्रद्धाभाव दृढ़ रखना चाहिएः जैसा देवों-प्रजापतियों तथा परमात्म-सत्ता के प्रति। मुक्तों, देवों, प्रजापतियों एवं ब्रह्म को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं होती किन्तु पितरों को ऐसी आवश्यकता होती है इसीलिए मनीषी-पूर्वजों ने पितर-पूजन, श्राद्ध-कर्म की परम्परायें प्रचलित की थीं। उनकी सही विधि और उनमें सत्रिहित प्रेरणा को जानकर पितरों को सच्ची भावना श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने पर वे प्रसन्न पितर बदले में प्रकाश, प्रेरणा, शक्ति और सहयोग देते हैं। पितरों को स्थूल सहायता की नहीं, सूक्ष्म भावात्मक सहायता की ही आवश्यकता होती है। क्योंकि वे सूक्ष्म शरीर में ही अवस्थित होते हैं। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात् पितृपक्ष में, मृत्यु की तिथि के दिन अथवा पर्व-समारोहों पर श्राद्ध कर्म करने का विधान देव-संस्कृति में है।

शास्त्रों की तर्पण व्यवस्था के अनुसार श्राद्ध प्रक्रिया में देव तर्पण, ऋषि तर्पण, दिव्य मानव तर्पण, दिव्य पितृ तर्पण, यम तर्पण, मनुष्य पितृ तर्पण नाम से 6 तर्पण कृत्य किये जाते हैं। इन सबके पीछे भिन्न-भिन्न दार्शनिक पृष्ठभूमि है। देव तर्पण अर्थात् ईश्वर की उन सभी महान् विभूतियों के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जो मानव कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से प्रयत्नरत हैं। वायु, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, विद्युत् एवं अवतारी ईश्वर अंशों की मुक्त आत्माएँ इसके अन्तर्गत आती हैं। ऋषि तर्पण व्यास, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, जमदग्नि, अत्रि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनि, दधीचि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति के निमित्त किया जाता है। दिव्य मानव तर्पण अर्थात् उनके प्रति अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति, जो लोकमंगल के प्रति समर्पित हो, त्यागी जीवन जिए एवं विश्वमानव के लिये प्राणोत्सर्ग कर गए। दिव्य पितृ वे, जो कोई बड़ी लोकसेवा तो न कर सके, पर व्यक्तिगत रूप से आदर्शवादी जीवन जी कर अनुकरणीय पवित्र सम्पत्ति अपने पीछे छोड़ गए। यम अर्थात् जन्म मरण का नियंत्रण करने वाली शक्ति। कुमार्ग पर चलने से रोक लगाने वाली विवेक शक्ति ही यम है। इसकी निरन्तर पुष्टि होती रहे, मुत्यु का भाव बना रहे, इसलिये यमतर्पण किया जाता है।

शरीर के नष्ट हो जाने पर भी जीव का अस्तित्व नहीं मिटता। वह सूक्ष्म रूप में हमारे चारों ओर वातावरण में घूमते रहते हैं। जीव का फिर भी अपने परिवार के प्रति कुछ-न-कुछ ममत्व रह जाता है। सूक्ष्म आत्मायें आसानी से सब लोकों से आकर हमारे चारों ओर चक्कर लगाया करती हैं। हमारे विचार और भावनायें इस सूक्ष्म वातावरण में फैलते हैं। इन्हें हम जिस तेजी से बाहर के वातावरण में फेंकते हैं, ये उसी गति से दूर-दूर फैल जाते हैं। अतः श्राद्ध में किए गए पूर्वजों के प्रति हमारे आत्मीय, सद्भावना, कृतज्ञता के भाव उन आत्माओं के पास पहुँच जाते हैं। उसे उनसे सुख शान्ति, प्रसन्नता और स्वस्थता मिलती है। श्राद्ध में हविष्यान्न पिण्डों के द्वारा श्रद्धाभिव्यक्ति की जाती है। ये पिण्ड साधन-दान के प्रतीक होते हैं। स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। जल की एक अञ्जलि भरकर कृतज्ञता के भाव से भरकर हम स्वर्गीय पितृ-देवताओं के चरणों में उसे अर्पित कर देते हैं। इस प्रकार श्रद्धा, प्रेम, कृतज्ञता, अभिनन्दन सभी का मिश्रित रूप श्राद्ध है। योगवासिष्ठ के अनुसार मरने के समय प्रत्येक जीव मूर्छा का अनुभव करता है। वह मूर्छा महाप्रलय की रात्रि के समान होती है। उसके उपरान्त प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपने स्वप्न और संकल्प के अनुसार अपने परलोक की सृष्टि करता है, यह बात इन श्लोकों में कही गयी है- मरणादिमयी मूर्च्छा प्रत्येकेनानुभूयते । यैषा तां विद्धि सुमते महाप्रलययामिनीम् ।। तदन्ते तनुते सर्ग सर्व एव पृथक् पृथक् । सहज स्वप्नसंकल्पान्संभ्रमाचल नृत्यवत् ।।-योगवासिष्ठ 3/40/31व 32 इसी सन्दर्भ में आगे बताया गया है कि- स्ववासनानुसारेण प्रेता एतां व्यवस्थितम् । मूर्छान्तेऽनुभवन्त्यन्तः क्रमेणैवाक्रमेण च।। अर्थात् प्रेत अपनी-अपनी वासना के अनुसार ही भावनात्मक उतार-चढ़ावों का अनुभव करते हैं। मरे हुए व्यक्ति की प्रेतावस्था में जिन लोगों से आसक्ति जुड़ी रहती है, उनकी भाव संवेदनायें और उनकी परिस्थितियाँ-मन स्थितियाँ प्रेतों को तीव्रता से प्रभावित करती हैं।

पिण्डदान और श्राद्ध कर्म का महत्त्व यही है कि उन क्रियाओं के साथ-साथ जो भावनायें जुड़ी होती हैं, वे प्रेतों-पितरों को स्पर्श करती हैं। इसी प्रकार पितरों के संस्कारों के अनुभव अपने प्रियपात्रों की स्थितियाँ उन्हें आन्दोलित करती हैं। योगवासिष्ठ में बताया गया है कि मृत्यु के उपरान्त प्रेत यानी मरे हुए जीव अपने बन्धु बान्धवों के पिण्डदान द्वारा ही अपना शरीर बना हुआ अनुभव करते हैं- आदौ मृता वयमिति बुध्यन्ते तदनुक्रमात्। बंधु पिण्डादिदानेन प्रोत्पन्ना इति वेदिनः ।। अर्थात् प्रेत अपनी स्थिति इस प्रकार अनुभव करते हैं कि हम मर गये हैं और अब बन्धुओं के पिण्डदान से हमारा नया शरीर बना है। स्पष्ट है कि यह अनुभूति भावनात्मक ही होती है। अतः पिण्डदान का वास्तविक महत्त्व उससे जुड़ी भावनाओं के कारण होता है। जिसके प्रति आत्मीयता होती है, उसके भावनात्मक अनुदान से प्रेत प्रभावित होता है। क्योंकि मरणोत्तर जीवन की अनुभूतियाँ वासना और संस्कारों के प्रभाव की ही प्रतिच्छाया होती हैं। इसलिए जिससे आत्मीयता का संस्कार अंकित हो, उसकी भावनायें परलोकस्थ जीव को प्रभावित करती हैं।

श्राद्ध तर्पण की सार्वभौम व्यवस्था में सारे समुदाय के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति समाहित है। यह मात्र कर्मकाण्ड तक सीमित न रहकर व्यवहार में उतरे, वसुधा एक विराट् परिवार है, इस भावना के रूप में साकार हो, उदार दानशीलता के रूप में लोकमंगल के कार्य बन पड़ें, तो ही इनकी सार्थकता है। पितृपक्ष का हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में विशेष माहात्म्य है। जो पितरों के नाम पर श्राद्ध और पिण्डदान नहीं करता, वह सनातन धर्मी, सच्चा देव संस्कृति का अनुयायी नहीं माना जा सकता। शास्त्र मान्यतानुसार मृत्यु होने पर मनुष्य की जीवात्मा चन्द्रलोक की तरफ जाती व ऊपर उठकर पितृलोक में पहुँचती हैं। उन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुँचने की शक्ति प्रदान करने-शान्ति देने के निमित्त ही पिण्डदान एवं श्राद्ध का विधान किया गया है। श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। श्रद्धापूर्वक किया गया कार्य ही श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। हमारे अदृश्य सहायक पितर गण गुरुजनों एवं पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के निमित्त मात्र श्राद्ध-तर्पण के रूप में ही बन पड़ता है। मृत पितरों के प्रति कृतज्ञता के उन भावों का स्थिर रहना हमारी संस्कृति के अनुयाइयों ने वर्ष में 15 दिन का समय पृथक् निकाल लिया है। पितृभक्ति का इससे उज्ज्वल उदाहरण और कहीं देखने को नहीं मिलता है। पितरों के प्रति व्यक्त की गयी कृतज्ञता उलटे लौटकर बहुगुणित होकर स्वयं पर बरसती है।

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