विचार
देह तो मल मूत्र का घर है
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
देह अर्थात शरीर की पवित्रता ओर अपवित्रत्ता पर बहस छिड़ी थी जिसमें पंडित जी एक आयोजन में मंच से कह रहे थे की वे सात जन्मों से पंडित है इसलिए यहाँ व्यास गद्दी पर विराजमान है ओर सबके श्रेष्ठ होने से पूज्य है। गाँव का बिहारी 90 साल का कभी स्कूल नहीं गया वह भी कथा सुन रहा था ओर खुदकों अपवित्र बताए जाने की बात का चिंतन कर रहा था। वह सारा जीवन खेती किसानी ओर गाय भैंस पालकर ओर उनके चारा काटकर लाने ओर नित गोशाला से गोबर गौमूत्र साफ करते सोचा करता इससे शायद वह पवित्र हो गया होगा, पर पंडित जी की बात से उसे ठेस लगी की वह इस जन्म में पवित्र नहीं जबकि पंडित जी ज्ञानी ध्यानी 7 जन्मों से पवित्र है। बुजुर्ग बिहारी उसके प्रश्नों का समाधान चाहता था, सो कथा के बाद जब पंडित जी कुछ विशेष लोगों के बीच पहुंचे तब उन्होने कथा आयोजन स्थल के यजमानों से चर्चा शुरू की। बस बिहारी को चर्चा करने का मौका मिल गया, आज पंडित जी व्यास गद्दी से उतरकर पंडाल में लोगों के बीच बैठ गए, सभी ने बुजुर्ग बिहारी का सम्मान किया ओर खेती किसानी के सवाल दागने लगे। बिहारी ने अपने आत्मबोध से प्रश्न किया पंडित जी बताइए क्या यह शरीर मल मूत्र ओर विष्ठा से भरा नहीं है ओर इस कारण यह स्नान के बाद भी अपवित्र है, क्या आपका शरीर मल मूत्र से रिक्त है जो आप पवित्र ओर हम अपवित्र हो गए? उनका कहना की इंसान की देह 4 मुखों से ग्रहण कर आठ केंद्र से उत्सर्जित करती है अर्थात मल-मूत्रादि त्यागती है, मुझे देह के इस रहस्योद्घाटन पर लिखने का अवसर मिल गया।
मनुष्य जो भी अन्नादि को कच्चे अथवा पके रूप में भोजन पकाकर ग्रहण करता है तब वह उसके शरीर में दो भागों में विभक्त हो जाता है, एक भाग समूह एकत्रित हो अलग हो जाता है तो दूसरा उस समूह में रस रूप में परिवर्तित हो जाता है। एक भाग समूह किट्ट मल के रूप में बारह प्रकार के मल में विभक्त हो शरीर से निकलता है। रस देह में फैलता है, जिससे यह देह रस से पुष्ट होता है। कान, नेत्र, नासिका, जिह्वा, दाँत, लिंग, गुदा, नख ये मलाश्रय है जिनसे कफ, पसीना, विष्ठा और मूत्र ये मल हैं, जो सभी मिलाकर बारह कहे गये हैं। पंडित जी को इस गंवार अपढ़ बूढ़े का सबाल उलझन में डाल देगा उन्होने सोचा नहीं था, वे बोले मैंने कर्मों की बात की है, कर्म से पवित्रता, तभी बूढ़े बिहारी ने बात काटी शरीर के कर्म से आप मुक्त है ओर मलमूत्र विष्ठा नहीं त्यागते, अगर मुक्त हो तो देवों के स्थान पर हो ओर रोज शरीर की शुद्धि हेतु मलमूत्र त्यागते हो तो आपका शरीर भी इनसे भरा होने से पवित्र कैसे हुआ, आप भी अपवित्र हुये। बुजुर्ग बिहारी यही नहीं रुका ओर पंडित का बोले दुनिया की कोई भी पवित्र सुगंधित अत्यंत सुंदर मनोहारी मिठाई, अन्न-फल या पकवान ग्रहण करे या पवित्र पंचगव्य एवं हव्य आदि शरीर में जाने के बाद वह सभी क्षणभर में अपवित्र हो जाती है, तो आपके पवित्र होने का दावा कैसे स्वीकार किया जाए? पंडित जी निरुत्तर होकर बाद मे सत्संग में चर्चा करने की कहकर चलते बने।
एक छोटे से गाँव का बुजुर्ग अपढ़ रहकर संतो की बात करे, ऋषि मुनियों के ज्ञान को विस्तारित कर प्रश्न करे की सुगंधित पवित्र अन्नपान शरीर में जाने के बाद प्रतिदिन दुर्गंधित मलमूत्र ओर विष्ठा के रूप मे बाहर निकले तो यह देह शुद्ध कैसे हो सकती है ? कोई एक उच्च कुल में होने पर खुद को पवित्र ओर दूसरों को अपवित्र समझे यह अज्ञानता है। पहले शरीर को शुद्ध ओर साफ किए जाने हेतु मिट्टी का प्रयोग होता था, बर्तनों की तरह शरीर भी माँजा जाकर निर्मल नहीं हो पाता था ओर इसके बाबजुद शरीर से कफ,मूत्र, विष्ठा, आदि निकलता रहता था ओर आज भी निकल रहा है भले शरीर को माँजने धोने के तरीके आधुनिक हो गए ओर ब्यूटीपार्लरों ओर ब्यूटीशियन का कारोबार चल पड़ा हो लेकिन फिर भी ब्यूटी होकर कोई कैसे शुद्ध ओर पवित्र रह सकता है, यह प्रश्न सभी के मस्तिष्क में होता है ओर एक विचार चलता रहता है की मनुष्य ही नही हर प्राणी अपने शरीर में विष्ठा-मूत्रकी थैली रखता है इसलिए वह सब प्रकार की अपवित्रता के निधानरूप इस शरीर का कोई एक भी स्थान पवित्र नहीं कह सकता है।
आज अपने देह के स्रोतों से मल निकालकर जल और रसायनिक खुशबूदार विभिन्न एक से एक सामग्रीयों के उत्पाद के दावे किए विज्ञापन से आकर्षित किया जाता है कि हम लाये है आपके लिए एक नया हर्बल साबुन, जिससे आपको मिले मुलायम और निखरी त्वचा, इसमें कोई भी हानिकारक केमिकल्स नहीं है, हल्दी चंदन के प्राकृतिक गुणों से भरपूर जो आपकी सुंदरता में निखार लाये ,खुशबू की बहार लाये , त्वचा में उज्जवल निखार लाये चाँद सा चमकाए,त्वचा की प्राकृतिक सौंदर्यता के लिए इस्तेमाल करे ..। यह देह कि शुद्धता कि प्रामाणिकता नहीं बल्कि अंधेरे में दौड़ रही इस पीढ़ी को गुमराह करने कि बात है जो विज्ञापन अर्थात ‘विशिष्ट सूचना’ को भावनात्मक शब्दों में उलझाकर इस शरीर को स्वच्छ के स्थान पर रोगो का उपहार दे रहे है। यह देह प्राकृतिक रूप से ही शुद्ध होती है ओर इन विज्ञापित वस्तुओं से सर्वथा अशुद्धिपूर्ण होने से पवित्र नहीं रहती ओर अगर यत्नपूर्वक उत्तम गन्ध, धूप आदिसे भलीभाँति सुसंस्कृत भी यह शरीर शुद्ध किया जाए तो यह शुद्ध नही होता ओर कुत्ते की पूँछ की तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है। या यूं समझिए जिस प्रकार स्वभाव से काली वस्तु अनेक उपाय करने पर भी उज्ज्वल नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह काया भी भलीभाँति शुद्ध करने पर भी निर्मल नहीं हो सकती है तथा हर व्यक्ति मल मूत्र त्यागते समय दुर्गन्ध को सूँघता हुआ, अपने मल को देखता हुआ तथा अपनी नाक को दबाता हुआ भी यह संसार इस से विरक्त नहीं होता है। सभी प्रकृति- स्वभाव के हर व्यक्ति के शरीर में यह दोष होता है जिससे वे अपने शरीर कि दुर्गंध से विरक्त नहीं होते है। इस जगत में सभी का शरीर अपवित्र है; क्योंकि उसके मलिन अवयवों के स्पर्श से पवित्र वस्तु भी अपवित्र हो जाती है। केवल इस के गंध के लेप को दूर करने के लिये देहशुद्धि की विधि अपनाकर गंध तथा लेप के दूर हो जाने से शुद्ध हो जाती है, इसलिए शुद्ध पदार्थ के स्पर्श होने से शरीर शुद्ध होता है।
सभी प्रकार के कर्मों में, भावशुद्धि को महान् शौच कहा गया है; क्यों कि कमनीय कमसिन का आलिंगन अन्य भाव से किया जाता है और पुत्री का आलिंगन अन्य भाव से किया जाता है। अभिन्न अर्थात् समान रूप वाली वस्तुओं में भी मन के भेद के कारण भाव भेद हो जाता है जिसमें पत्नी अपने पति में अन्य भाव रखती है और पुत्र के प्रति अन्य भाव रखती है। यदि चित्र में काम, क्रोध और लोभ- इन तीनों की चिन्ता विद्यमान रहे, तो अनेक प्रकार के अन्नादि तथा स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ को कोई भी व्यक्ति रुचिपूर्वक नहीं खा सकता है। स्पष्ट है कि भावना करने से व्यक्ति बंधन में पड़ता है ओर भाव न आने से वह इससे मुक्त रहता है भावसे शुद्ध आत्मावाला ही स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। एकमात्र भाव से शुद्ध आत्मावाला जलता हुआ, होम करता हुआ तथा स्तुति करता हुआ यदि मर भी जाय तो उसे शीघ्रता से ज्ञानप्राप्तिके पश्चात् उच्च देवलोक प्राप्त होते हैं। ज्ञानरूपी निर्मल जल से और वैराग्यरूपी मिट्टी से मनुष्यों को अविद्यारूपी मल-मूत्र के लेप की दुर्गन्ध दूर हो जाती है। यह शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र कहा गया है। जिसमें केवल त्वचा ही सार होती है, जो बुद्धिमान पुरुष देह को इस प्रकार का दोषयुक्त जानकर विरक्त हो जाता है, वह शरीर के भोगों से उत्पन्न होने वाले भाव से निर्मल बुद्धि से युक्त हो जाता है। बुढ़ापे से – ग्रस्त हुआ मनुष्य असमर्थता के कारण पुत्री, पुत्र, २ भाई-बन्धु तथा कठोर स्वभाव वाले भृत्यों से तिरस्कृत किया जाता है। बुढ़ापे से ग्रस्त हुआ मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की सिद्ध करने में असमर्थ रहता है, अतः यौवनावस्था में ही उसे धर्माचरण कर लेना चाहिए, ताकि मल मूत्र के देहरूपी घर के जर्जर होने से उत्पन्न रोगों से वह मुक्त हो सके ,यह बुजुर्ग बिहारी के अनुसार अनेक संहिता ओर शिव महापुराण में भी उल्लेखित बताया है।
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार