कविता

भारत जैसा देष ना कोई

सारी दुनियां घूम के आए भारत जैसा देश ना कोई।
इस की माटी यह समझाए भारत जैसा देश ना कोई।
जन्म मृन्यु एंव विवाह-शादी में सब धर्मों का भाईचारा,
तन मन धन के साथ निभाए भारत जैसा देश ना कोई।
ललप-पलक एंव हास्य ठिठोली गिद्धे-भंगड़े और किलकारी,
तुर्ले वाला लय में गाए भारत जैसा देश ना कोई।
दादा अपने जन्नत जैसे पोते को जब लाड़ लड़ाए,
गुदगुदियों के साथ हंसाए भारत जैसा देश ना कोई।
ऋषियों-मुनियों, गुरूयों-संतों कर के आत्म चिंतन सृजन,
वेद-ग्रंथ उपनिषद बनाए भारत जैसा देश ना कोई।
लाखों ही कुर्बानियां देकर फिर इतिहास अनोखा पाया,
आज़ादी सिर मुकट सजाए भारत जैसा देश ना कोई।
पर्वत दरिया जंगल गुलशान ठंडे-गर्म चश्में लेकर,
कुदरत सौ-सौ कस्में खाए भारत जैसा देश ना कोई।
धर्मों वाली रीति-नीति लेकर अपनी शक्ति अन्दर,
सर्व उच्च तिरंगा लहराए भारत जैसा देश ना कोई।
मेहमान निवाज़ी वाले सिज़्दे एक सामाजिक जीवन शैली,
प्यार-मुहोब्बत के हमसाए भारत जैसा देश ना कोई।
कृष्ण-सुदामा राम भरत एवं भाई लालो, बंदी राजे,
सिर्जन निर्धन को गल लाए भारत जैसा देश ना कोई।
हर इक रिश्ते का नाम यहां पहचान परिचित करता है,
चाचे-मामे,फूफे,ताए भारत जैसा देश ना कोई।
मानवता की अर्चन पूजा एकम वाला सूरज लेकर,
तड़क सवेरा दर पर आए भारत जैसा देश ना कोई।
उन्नति सर्वव्यापक होकर खोजों में बुलंदी पाए,
चन्द्रमा पर पैर जमाए भारत जैसा देश ना कोई।
शुभआशीषें, शुभकर्मण, शुभ अर्पण, शुभ इच्छांए पूर्ण,
जन गण मन ,जन जन है गाए भारत जैसा देश ना कोई।
अगर यहां का नवयुग प्राणी अपना निज-स्वार्थ छोडे़,
उन्नति के पथ और बनाए भारत जैसा देश ना काई।
रिश्वतखोरी, बेईमानी, धोखा, ठग्गी खत्म हो जाए,
जन्नत के मुख से कहलाए भारत जैसा देश ना काई।
काश! कि फिर सोने की चिड़िया विश्वव्यापी होकर उड़ती,
बीच विदेशों में कहलाए भारत जैसा देश ना काई।
बालम अगर सियासत सारी अंतर्निहित बन कर आए,
कण-कण के मुख से कहलाए भारत जैसा देश ना कोई।
बलविंदर बालम गुरदासपुर

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