आत्मघाती बम के मुहाने पर गुरुजन,करें तो क्या करें?
सुशील कुमार ‘ नवीन ‘
लोहे की रॉड से छात्र ने आईटीआई अनुदेशक का सिर फोड़ा, प्रैक्टिकल वर्क पूरा करने को कहा था। आईसीयू में एक माह रहा भर्ती, नहीं बच पाई जान। होमवर्क पूरा न करने पर छात्र को डांटा तो छुट्टी के बाद साथियों के साथ शिक्षक पर बोला जानलेवा हमला। कक्षा में बदतमीजी कर रहा था छात्र, शिक्षक ने टोका तो गमला उठाकर दे मारा। देरी से आने का कारण पूछना शिक्षक को पड़ा भारी, अभिभावकों ने छुट्टी के बाद शिक्षक को धुना। प्रोजेक्ट वर्क पूरा न करने पर कक्षा से बाहर खड़ा करना नहीं हुआ सहन, शिक्षक पर ईंट से हमला बोल हुआ फरार।
इस प्रकार की नई-नई घटनाएं रोजाना समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों की सुर्खियों में बनी रहती हैं। यू ट्यूब चैनलों वाले महानुभावों की तो बात ही अलग है। पूरे प्रकरण की सत्यता जांचने से पहले ही ‘ गुरुजन ‘ को घटना के लिए दोषी भी ठहरा देते हैं। बाद में हुई जांच पर मामला कुछ और निकले भी तो उससे उन्हें क्या? व्यूज और लाइक के चक्कर में किसी की प्रतिष्ठा जाए तो जाए इन्हें इससे कुछ मतलब नहीं।
ताजा घटना तो इसके आगे कुछ भी नहीं है। हरियाणा के भिवानी जिले के एक गवर्नमेंट स्कूल में महिला शिक्षिका की कुर्सी के नीचे शरारती तत्वों ने पटाखा बम रख दिया। शिक्षिका जैसे ही कुर्सी पर बैठने लगी तो अचानक बम फट गया। ये तो शिक्षिका मजबूत दिल वाली थी, जो अचानक हुए हादसे को झेल गई । झुलसी तो जरूर पर हार्ट फेल होने से बच गई। यह घटना क्यों हुई, इसके पीछे क्या मकसद था ? यह तो अब जांच ही बता पाएगी। पर क्या ऐसी घटनाएं होनी चाहिए? जवाब होगा। बिल्कुल नहीं। जवाब नहीं है तो फिर इस तरह की घटनाएं क्यों हो रही हैं। इसके जिम्मेदार कौन हैं? इस पर भी तो विचार होना चाहिए। जब इस तरह की घटनाएं शिक्षण संस्थानों में होंगी तो क्या शिक्षण व्यवस्था सुचारू रूप से चल पाएंगी? छात्रों में शिक्षक के प्रति डर है ही नहीं। जब डर नहीं है तो फिर इस तरह की हरकतें तो होनी स्वाभाविक ही होंगी।
याद कीजिए आज से 20 से 25 वर्ष पूर्व गली में सामने से खुद के स्कूल का तो छोड़ो दूसरे स्कूल का शिक्षक भी दिख जाता था तो रास्ता बदल लेते थे या छिप जाते थे। डर रहता था कि कहीं गली में घूमने पर अगले दिन क्लास न लग जाए।
स्कूल में किसी बच्चे के पेरेंट्स को बुलाया जाता था तो पेरेंट्स स्कूल आने में झिझकते थे। शिक्षक ने बच्चे की कोई शिकायत की तो वे उसे इज्जत के साथ स्वीकारते। शिक्षक द्वारा की गई पिटाई घर पर बताने से भी झिझका जाता था। घर पर पता चलने पर डांट और पड़नी पक्की होती थी। आज मामला ठीक इसके विपरीत है। किसी शिक्षक द्वारा बच्चे की पिटाई तो दूर यदि उसे ढंग से डांट भी दिया तो हेडमास्टर-प्रिंसीपल के कार्यालय में अगले दिन शिक्षक की पेशी पक्की है। अभिभावक आते ही कहते हैं कि हमारे बच्चे के साथ फलाने शिक्षक का व्यवहार ठीक नहीं है। जानबूझकर बच्चे को निशाना बनाया जा रहा है। दूसरों को कुछ नहीं कहा जा रहा। बच्चे के सामने शिक्षक का इससे ज्यादा मान मर्दन और क्या हो? शिक्षक को यह कहकर पीछा छुटाना पड़ता है कि जी, आगे से इस पर ध्यान रखा जायेगा। अब इसके बाद साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि भविष्य में उन गुरु शिष्य के प्रति किस तरह की सम्मानजनक भावना रहेगी? वो बच्चा जिसके आगे उसके गुरुजन ने माफीनामा कबूल किया है वो अपने आप को डॉन से क्या कम समझेगा? आगे जाकर वो सुधरेगा कम और बिगड़ेगा ज्यादा। बिगड़ने पर दोष शिक्षक के सिर मंडना फिर तय है। इस तरह की घटनाएं यदि एक-दो और हो जाएं तो छात्र-शिक्षक अनुशासन की तो भैंस गई पानी में।
हम ये नहीं कहते कि बच्चों की स्कूल में पिटाई हो, या उसे डराकर पढ़ाया जाए। आरटीई (शिक्षा का अधिकार) ने बच्चों को फेल होने का डर निकाल दिया है तो किशोर न्याय अधिनियम ने स्कूल में टीचर द्वारा की जाने वाली मारपीट का। दोनों ही वर्तमान में स्कूली शिक्षा के लिए फायदे की जगह नुकसान ज्यादा पहुंचा रहे हैं। आठवीं तक फेल होने का डर बच्चों का निकल चुका है। उनके अनुसार पास तो होने ही है। फेल का डर नहीं है तो पढ़ने में रुचि खत्म होती जा रही है। रही सही कसर किशोर अधिनियम ने पूरी कर दी है। इससे शिक्षक किसी बच्चे की पिटाई करना तो दूर धमकाने से भी बचने लगे हैं।
गुरु यानी जो ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान को मिटा दे वह गुरु है। गुरु चाहे तो अपने शिष्य को सफलता के शिखर पर बिठा दे, एक साधारण इंसान को महान बना दे। ऐसे ही कुछ गुरु-शिष्यों की जोड़ी में अर्जुन-द्रोणाचार्य, चाणक्य-चंद्रगुप्त, रामदाससमर्थ-शिवाजी, रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद आदि को हमेशा याद किया जाता है।
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। उनके अनुसार गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है। इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनन्द की प्राप्ति है,जिसे ईश्वर-प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है।
आज के हालातों को समझे तो गुरुजन किसी आत्मघाती बम के मुहाने पर खड़े होने से से कम नहीं है। इसी तरह की घटनाएं यदि होती रहीं और इन पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई तो आने वाला समय विनाशकाले विपरीत बुद्धि वाले से कम नहीं होगा। जीवन की हर सीख सिखाने वाला यदि डरा-डरा रहेगा तो न कोई द्रोण बन पायेगा और न ही कोई अर्जुन। शिक्षा की खानापूर्ति हुई तो शिक्षा का भट्ठा बैठना तय है। इसलिए शिक्षा को बचाना है तो कागजी खानापूर्ति से काम नहीं चलने वाला। हर जगह नरमाई उपयुक्त नहीं है। सख्ती भी जरूरी है। कबीर जी भी जो कह गए हैं। उस पर भी ध्यान दें तो अब कुछ क्लियर हो जाएगा।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ, गढ़ि– गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥